भारत में केरल जैसी गंभीर बाढ़ हो या अमेरिका के वनों में सभी सीमाओं को पार करती आग, अनेक अति विनाशकारी आपदाओं के तार जलवायु बदलाव के व्यापक संकट से जोड़े जा रहे हैं। इनसे भी ज्यादा गंभीर आपदाओं विशेषकर समुद्र स्तर के ऊपर उठने की चेतावनियां वैज्ञानिक दे रहे हैं। विशेषज्ञों को यह भी स्वीकार करना पड़ रहा है कि ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में उपेक्षित कमी नहीं आ रही है, अपितु इसमें तो पिछले रिकार्ड तोड़ने वाली अधिकता आ रही है।

इस दिशा में देखें तो जितना आवश्यक पेड़ लगाने का हैं, उतना ही आवश्यक गाय को बचना है, क्योंकि गाय भी पर्यावरण को बचाने की दिशा में कार्य करती है। गाय की भूमिका पेड़ों से अधिक है। वह गोमय के माध्यम से शुद्ध मिट्टी प्रदान करती है। गोमूत्र के माध्यम से शुद्ध वायु प्रदान करती है। क्षीर के माध्यम से शुद्ध जल प्रदान करती है।

विश्व पटल की गतिविधियों को देखें तो – संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने 22 नवम्बर 2018 को जारी आंकड़ों में बताया कि कार्बन डाइऑक्साईड का स्तर 2017 में पिछले वर्ष की अपेक्षा और बढ़ गया। वर्ष 1750 के आसपास को औद्योगीकरण-पूर्व का समय माना जाता है। इसकी तुलना में वर्ष 2017 तक कार्बन डाइऑक्साईड उत्सर्जन 46 प्रतिशत बढ़ा है।

इसमे से अधिकतम वृद्धि 1750-1987 के बीच हुई व शेष आधी वृद्धि 1987-2017 के बीच हुई। जो वृद्धि औद्योगीकरण के 237 वर्षो में हुई थी, लगभग उतनी ही वृद्धि इसके बाद के 30 वर्षो में हो गई। यह 30 वर्ष ही वह समय था जब मनुष्य को पता चल चुका था कि जलवायु बदलाव की समस्या कितनी गंभीर है।

यह जानकारी मिलने के बाद भी तीन दशक में कार्बन डाइऑक्साईड के स्तर में इतनी वृद्धि होने दी गई जितनी कि पिछले 237 वर्षो में हुई थी। इन तीन दशकों में जलवायु बदलाव पर कितनी ही बड़ी अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस हुई। जलवायु बदलाव अंतरसरकारी मंच का गठन हुआ व इसकी ऐसी अनेक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिनसे समस्या की बढ़ती गंभीरता का पता चलता है। अनेक स्वतंत्र वैज्ञानिकों ने भी ऐसी चेतावनियां जारी कीं व इस वर्ष अक्टूबर में तो वैज्ञानिक लंदन में अपनी चेतावनियों को लेकर सड़क पर भी आ गए हैं।

वैज्ञानिक पहले तापमान वृद्धि को 20 सेल्सियस तक सीमित करना जरूरी मानते थे पर फिर अधिक सहमति इस पर बनी कि बड़ी आपदाओं को रोकने के लिए यह वृद्धि 1.50 सेल्सियस तक ही सीमित करनी चाहिए। कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में जो प्रवृत्तियां इस समय मौजूद हैं वे तो इस सीमा से कहीं आगे पहुंचने का संकेत दे रही हैं।

वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने वर्ष 2020 तक के जो उत्सर्जन के अनुमान प्रस्तुत किए वह 21 वीं शताब्दी में तापमान वृद्धि 20 सेंटीग्रेट तक रोकने के अनुकूल नहीं है, अपितु 21 वीं शताब्दी के अंत तक 2.50 सेंटीग्रेट से 50 सेंटीग्रेट तक की वृद्धि का संकेत देते हैं।

वर्ष 2015 में जलवायु बदलाव व स्वास्य आयोग ने बताया कि शताब्दी के अंत तक की संभावनाएं 2.60 सेंटीग्रेट से 4.80 सेंटीग्रेट तक की तापमान वृद्धि की हैं।

इस चुनौती का सामना करने में सबसे महत्त्वपूर्ण देश अमेरिका है, जो जलवायु बदलाव के पेरिस समझौते से बाहर आने की घोषणा कर चुका है। इस चुनौती का सामना करने के लिए जो वित्तीय संसाधन चाहिए वह उपलब नहीं हो रहे हैं। ग्रीन क्लाइमेट फंड के अंतर्गत 2020 तक निर्धन व विकासशील देशों को जलवायु बदलाव नियंत्रण की कार्रवाई के लिए 1000 करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष उपलब्ध करवाने का वादा औद्योगिक देश कर चुके हैं।

वर्ष 2020 तो अब पास आ रहा है, पर इस धन को जुटाने से अभी धनी देश बहुत दूर हैं। अमेरिका की देखादेखी अन्य महत्त्वपूर्ण देश भी पीछे हट रहे हैं। भारत, चीन, ब्राजील व दक्षिण अफ्रीका ने इस बारे में औद्योगिक व धनी देशों को अपनी जिम्मेदारी व वायदों के बारे में फिर ध्यान दिलाया है, पर क्या वे सुनने को तैयार हैं? संभवत: नहीं।

यही वजह है कि इस संकट के हल के लिए जन-चेतना को जागृत करना पहले से और जरूरी हो गया है। यह धरती की जीवनदायिनी क्षमता की रक्षा का विषय है, जिस पर सभी को आगे आना होगा।

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