श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्णचन्द्रजी के श्रीमुख से नकली है। इसके ज्ञान का अनूठा प्रकाश है। जीवन प्रबंधन की इस आचार संहिता की विशिष्टता है कि यह संदेश युद्ध भूमि से दिया गया है।
प्रत्येक वर्ष हरियाणा में गीता जयंती मनाई जाती है। श्रीकृष्णचन्द्रजी के उस क्षण को याद किया जाता है। इस पर लेखिका पूनम नेगी का विश्लेषण पढ़ने योग्य है। जिसका अंश इस संपादकीय लेख में दे रहा हूँ।
गीता नायक के अनुसार किसी कार्य में समग्र रूप से निमग्न हो जाना ही योग है। वे मन, क्रम, विचार, भाव के साथ कार्य करते हुए उस कार्य के परिणाम से निर्लिप्त करने की बात कहते हैं क्योंकि आसक्ति कर्म का बंधन बनती है। विश्व के महानतम नीतिज्ञ श्रीकृष्ण व किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन के मध्य का संवाद गीता ज्ञान का मूल तत्व है।
18 अध्यायों के 720 श्लोकों में प्रवाहित इस अद्भुत ज्ञान गंगा की कोई तुलना नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के छठे खंड ‘भीष्म पर्व’ का वह हिस्सा है, जो वार्तालाप मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में श्रीकृष्ण व अर्जुन के मध्य हुआ था। इस दिव्य संवाद ने अर्जुन का मोह और विषाद नष्ट कर उनको कर्म पथ पर प्रेरित किया, मोक्ष का पक्ष दिखाया। इसीलिए इस दिन को मोक्षदा एकादशी तथा गीता जयंती के नाम से जाना जाता है।
देश-दुनिया के आध्यात्मिक मनीषी इस विषय पर एकमत हैं कि ज्ञान, भक्ति व कर्म की इस अनूठी त्रिवेणी को जितनी बार पढ़ा जाता है; नित नये रहस्य खुलते जाते हैं। गीता हमें जीवन के शत्रुओं से लड़ने और ईश्वर से एक गहरा नाता जोड़ने में मदद करती है।
गीता कहती है कि मोक्ष उसी मनुष्य को प्राप्त होता है, जो अहंकार, ईष्र्या व लोभ को त्याग कर अपने सारे सांसारिक कामों को बिना किसी अपेक्षा के सिर्फ कर्तव्यभाव से करता है। इसलिए यह एक पुस्तक नहीं है, जीवन-मृत्यु के दुर्लभ सत्य को अपने में समेटे सनातन धर्म की ऐसी अनमोल निधि है, जो निराश, हताश, थके, भयभीत व दुखी मनुष्य के हृदय में आशा, प्रेम, शक्ति व सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है।
आज से एक शताब्दी पूर्व जब हमारी देवभूमि विदेशी आक्रमणकारियों व अंग्रेजों के अत्याचारों से आक्रांत हो कराह रही थी, 1857 की क्रांति फेल हो चुकी थी, संपूर्ण भारत छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरता जा रहा था; उन्हीं दिनों भगवान कृष्ण की इस देववाणी का संदेश महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक व विनोबा भावे आदि अनेक मनीषियों के अन्त:करण में प्रस्फुटित हुआ। वे भारत की स्वतंत्रता के लिए कठोर साधनात्मक पुरुषार्थ में जुट गए। गीता के पवित्र ज्ञानामृत का पान कर मोहनदास करमचन्द गांधी जैसा एक सामान्य का व्यक्ति ऐसे तेज पुंज के रूप में उठ खड़ा हुआ कि पूरा विश्व उन्हें महात्मा के रूप में जानने लगा।
कहते हैं कि गीता का असर था कि खुद को दुनिया का सिरमौर बताने वाले अंग्रेजों में इस प्रकार की धारणा उपजने लगी थी कि महात्मा गांधी से आंख से आंख मिलाकर बात मत करना क्योंकि उनकी आंखों में अपनी बात मनवाने का विलक्षण जादू है। भूदान आंदोलन के प्रणोता विनोबा भावे के ‘गीता प्रवचन’ में कर्मयोग के सिद्धांत की समाजशास्त्रीय दृष्टि से अद्भुत विवेचना मिलती है। बाल गंगाधर तिलक कृत ‘गीता रहस्य’ में श्रीकृष्ण के निष्काम कर्मयोग की जो सरल, व्यावहारिक व आध्यात्मिक व्याख्या मिलती है।
इतना ही नहीं भारतीय मनीषियों के अलावा अनेक विदेशी विद्वानों ने भी गीता के महत्त्व समझा। गीता का ही असर था कि ईसाई धर्म मानने वाले केनेडा के प्रधानमंत्री पीयर टूडो इस ग्रंथ का अध्ययन कर भारत आए। भारत आने का मकसद पूछने पर उनका कहना था कि जीवन की शाम हो जाए और देह को दफनाया जाए, उससे पहले अज्ञानता को दफनाना जरूरी है और वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर गाय और गीता-उपनिषद लेकर एकांतवासी हो गए।
इसी तरह सुप्रसिद्ध अमेरिकी संत महात्मा थोरो का कहना था कि प्राचीन भारत की स्मरणीय वस्तुओं में श्रीमद्भगवदगीता से श्रेष्ठ दूसरी कोई भी वस्तु नहीं। इसी तरह इंग्लैंड के महान दार्शनिक एफ एच होलेम का कहना था कि वे ईसाई होते हुए भी गीता के प्रति इतनी श्रद्धा व आदर इसीलिए रखते हैं क्योंकि गीता भारत का ऐसा अमूल्य व दिव्य खजाना है, जिसे विश्व के समस्त धन से भी नहीं खरीदा जा सकता।
इन अनमोल सूत्रों के कारण वर्तमान की घोर स्पर्धापूर्ण परिस्थितियों में गीता प्रबंधन की कारगर कुंजी साबित हो रही है। देश-दुनिया के तमाम उच्च शिक्षण-प्रबंधन संस्थान व स्कूल इसे अपने पाठय़क्रमों का हिस्सा बना रहे हैं। कई विकसित देशों ने अपने शैक्षिक पाठय़क्रमों में गीता को शामिल किया है। गीता के प्रबंधन सूत्रों को अपने प्रतिष्ठानों में लागू करने वाली अनेक नामी-गिरामी कंपनियां इसके नतीजों से खासी उत्साहित हैं।