हमें जीने के लिए 20.8 प्रतिशत घनत्व वाली वायु चाहिए. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि हमारा मनुष्य शरीर इस प्रकार से बना है, जिसमें तीन इनपुट की आवश्यकता होती है. 1) ठोस ; जिसे हम आहार के रूप में लेते हैं. 2) तरल; जिसे हम जल के रूप में लेते हैं, और 3) वायु ; जिसे हम श्वांस के रूप में लेते हैं.

  1. ठोस ; ठोस आहार के रूप में भोजन करते हैं. चूँकि हमारा शरीर पूरी तरह से प्राकृतिक है इसलिए आहार भी प्राकृतिक होना चाहिए. दूसरे विश्व युद्ध से पहले ऐसा ही था. लेकिन बाद में सब कुछ बदल गया. 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ था. 6 वर्षों तक चला. 1945 में समाप्त हुआ. भयंकर जनहानि हुई. इस लड़ाई में लगभग 7.5 करोड़ लोग मारे गए थे. इसी युद्ध में आणविक और केमिकल बम का प्रयोग किया गया था. 6 वर्षों तक चले इस विश्वयुद्ध में केमिकल हथियार की सामग्री आपूर्ति के लिए यूरोप और अमेरिका में सैकड़ों केमिकल कारखाने बैठाये गए, जहाँ मानवीय क़त्ल के लिए बेसुमार केमिकल विष बनाये गए. कारखानों को बनाने में भारी – भरकम पूँजी और श्रमिक लगे. 1945 में जब जापान को बर्बाद कर जब शांति मिली तब यूरोप और अमेरिका की इन कंपनियों के सामने बड़ा संकट आया, पूँजी के नष्ट होने का और श्रमिकों को बेरोजगार होने का. इसलिए विश्वयुद्ध के बाद उसके बचे हुए केमिकलों को कहीं और खपाने के लिए कृषि का क्षेत्र चुना गया. कृषि क्षेत्र में कीटनाशक के रूप में इसका सबसे पहला प्रयोग हुआ. फिर इन्हीं कंपनियों ने यूरिया, डीएपी, फास्फेट और सुपर फास्फेट नाम के केमिकल जहर बनाये. दुनिया को उल्टा पाठ पढ़ाया कि इससे पैदावार बढ़ती है. आज संसार के सभी कृषि क्षेत्र जहर से पट गए हैं. सारा जैविक अनाज जहरीला हो गया है. आज मनुष्य ठोस भोजन के नाम पर जहर खा रहा है.
  2. जल हमारा दूसरा तरल आहार है, जिसमें पानी मुख्य है. इन्हीं केमिकलों के कारण पानी भी दूषित हो गया है. इस विषय को कभी दूसरे लेख में रखूँगा.
  3. तीसरा आहार है वायु ; जिसमें मुख्य है – ऐसी वायु जिसमें 20.8 प्रतिशत O2 प्राणवायु हो. लेकिन वायु प्रदूषण इतना बढ़ गया है की संसार के लगभग सभी शहरों की स्थिति नरक जैसी हो गयी है. भारत में दिल्ली, मुंबई, पुणे, हैदराबाद, चेन्नै आदि शहर नरक जैसे नहीं, बल्कि नरक ही बन गए हैं. जैसे – जैसे कार्बन और उसके जातिगत वायु का परिमाण वायुमंडल में बढ़ता जाता है, वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ता जाता है. केमिकल कारखानों की इसमें सबसे बड़ी भूमिका है. प्लास्टिक और उसके समकक्ष के तत्वों के कारण वायु प्रदूषण का स्तर और बढ़ता जा रहा है.

मैं ; वर्ष 2013 से अपने व्याख्यानों में इसे गंभीरता के साथ रखते आया हूँ कि जिस प्रकार पानी का प्रदूषण बढ़ाकर, शुद्ध पानी के नाम पर पानी का बहुत बड़ा व्यापार खड़ा कर दिया गया.   उसी प्रकार वायु का प्रदूषण बढ़ाकर वायु का भी व्यापार खड़ा किया जायेगा.

आज O2 प्राणवायु की आपूर्ति के लिए जितने कारखाने लगाये जा रहे हैं, उसमें जो पूँजी लगाई जा रही है, क्या यह केवल संकट की घडी तक के लिए है ? कोरोना का संकट तो कुछ और महीने रह सकता है. उसके बाद क्या ये कारखाने चुप रहेंगे ? क्या इतना अधिक OO2 प्राणवायु कहीं खपत कराया जायेगा? इन प्रश्नों के उत्तर हमें तलासने पड़ेंगे?

अभी O2 प्राणवायु की सप्लाई तो हमें अच्छी लग रही है क्योंकि दूसरा विकल्प बताया नहीं जा रहा है. लेकिन यही आने वाले समय में गले का फ़ांस बनने वाला है. जैसा की ऊपर हमने द्वितीय विश्व युद्ध का उदहारण देख लिया है.

अब देखते हैं कुछ वास्तविक आंकड़े. इस एक माह में आक्सीजन की खपत में पांच गुना वृद्धि दर्ज की गयी है. वैश्विक महामारी कोरोना के कारण आक्सीजन की कमी को लेकर मचे हाहाकार के बीच देश ने आक्सीजन उत्पादन में भी अहम वृद्धि की है. पिछले एक पखवाड़े़ में ही आक्सीजन उत्पादन में एक हजार मीट्रिक टन प्रतिदिन की वृद्धि हुई है और आक्सीजन उत्पादन 8419 मीट्रिक टन से बढ़कर 9446 मीट्रिक टन प्रतिदिन पहुंच गया है.

उत्पादन क्षमता का उपयोग 84 प्रतिशत से बढ़कर 129 प्रतिशत हो गया. फिर भी आक्सीजन की कमी को लेकर अभी तक देश के विभिन्न राज्यों में हाहाकार मचा है. आक्सीजन की मांग को पूरा करने के लिये लगभग 50 हजार मीट्रिक टन आक्सीजन का जहां आयात किया जा रहा है‚ वहीँ देश में भी आक्सीजन उत्पादन बढ़ाया जा रहा है.

आक्सीजन के उत्पादन में सर्वाधिक वृद्धि पिछले 15 दिनों में हुई है. अगस्त माह तक यह उत्पादन 9551 मीट्रिक टन प्रतिदिन होना है. मेडि़कल आक्सीजन की बिक्री में पिछले एक माह में 5 गुना वृद्धि हुई है. इसी वर्ष 31 मार्च को आक्सीजन की बिक्री 1559 मीट्रिक टन प्रतिदिन थी‚ जो 03 मई तक पांच गुना वृद्धि के साथ 8000 मीट्रिक टन प्रतिदिन हो गई है.

1 comment on “जल ; अब प्राणवायु (O2) का व्यापार

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