स्वर्गीय राजीव भाई दीक्षित कहा करते थे जिस शरीर ने खून बनाना बन्द कर दिया हो उसे कब तक बाहरी खून देकर जीवित रखा जा सकता, पश्चिम से आयी चिकित्सा एलोपैथी खून ना बनाने वाले शरीर में बाहर से खून देकर जिंदा रखने में विश्वास रखती है जबकि स्वदेशी आयुर्वेद चिकित्सा शरीर को स्वयं खून बनाने में सहायता कर स्वावलंबी और दीर्घायु बनाने में विश्वास रखती है।
आज कोरोना महामारी में जब पूरे देश को एलोपैथी के हवाले कर दिया गया है तो पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी हो गयी है, सभी हस्पताल ऑक्सीजन को लेकर त्राहिमाम कर रहे हैं, हस्पताल से लेकर प्रशासन, प्रशासन से लेकर राज्य और राज्य से लेकर केंद्र, ये सभी सब कुछ छोड़ ऑक्सीजन की व्यवस्था करने में लगे हैं।
देश में प्रधानमंत्री पूरे पूरे दिन ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए बैठक कर रहे हैं और देश के समस्त प्रशासनिक तंत्र को ऑक्सीजन की व्यवस्था में झोंक दिया गया है।
शायद आज राजीव दीक्षित जी होते तो यही कहते की जिन फेफड़ों में वातावरण से ऑक्सीजन को अवशोषित(जो श्वांस हम लेते हैं उसमे अलग-अलग गैस अपने अपने अनुपात में होती हैं और उसमे से शुद्धऑक्सीजन को अलग कर हृदय को देने का काम फेफड़े करते हैं) करने की क्षमता ही नही बची उन्हें बाहर से कृत्रिम रूप से ऑक्सीजन देकर कब तक जीवित रखा जा सकता है।
जबकि वहीं आयुर्वेद की दृष्टि और समाधान एकदम सरल है, आयुर्वेद अनुसार यह संक्रमण पिछले साल भी वसंत में शुरू हुआ था और इस साल भी इसका प्रकोप वसंत में ही हुआ और प्राकृतिक रूप से वसंत में ही कफ की स्वाभाविक वृद्धि होती है लेकिन दुर्भाग्य से अब हमने ऋतुचर्या को अपनाना छोड़ दिया है बल्कि ऋतु विरुद्ध घोर दूषित आहार-विहार करके स्वाभाविक रूप से बढ़े हुए कफ को कम करने के स्थान पर उल्टा उसे कई गुणा बढ़ाया है।
हमें ऑक्सीजन सिलिंडर की नहीं अपितु कफ से दूषित फेफड़ों को शुद्ध करने की आवश्यकता है, जैसे ही फेफड़ों से बढ़ा हुआ कफ दूर होगा वैसे ही फेफड़े स्वतः ही ऑक्सीजन को अवशोषित करने लगेंगे।
आपातकालीन व्यवस्थाएं अवश्य होनी चाहिए लेकिन अगर सभी रोगी ही आपातकाल में आने लगें तो खोट वर्तमान चिकित्सा और बदली हुई जीवन शैली पर ही जाएगा।
बदहाल स्थिति यहीं नही रुकती अपितु भोगी जीवन शैली अपनाकर संक्रमित हुए रोगी आज लगभग पूर्णतया एलोपैथी पर आश्रित हैं और जब से एंटीबायोटिक्स फेल हुई हैं तब से रोगियों को रेमडेसिवर और एचसीक्यू जैसी अनएप्रूव्ड और ट्रायल ड्रग्स दी जा रही हैं जो दूषित कफ को नियंत्रित करने के बजाए उसे वहीं सुखाकर न्यूमोनिया जैसी स्थिति बना देती हैं, यही न्यूमोनिया ग्लूकोस चढ़ाने से और विकट हो रहा है और रोगी बड़ी संख्या में दम तोड़ रहे हैं।
हस्पतालों में कफ को ना सिर्फ दवाओं से दूषित किया जा रहा है बल्कि उन्हें नाश्ते में दूध/चाय के साथ टोस्ट,ब्रेड और बिस्कुट दिए जा रहे हैं जो दोषों को विकृत कर रहे हैं, पीने के लिए ताजा-ठंडा पानी दिया जा रहा है और साधारण स्थितियों को विकट बनाया जा रहा है।
आज पूरी चिकित्सा व्यवस्था पश्चिमी देशों पर आश्रित होकर चरमरा गयी है, वैक्सीन का अधिकतर कच्चा माल अमरीका और यूरोप की दया पर टिका है वैक्सीन्स के पेटेंट्स की भयंकर रॉयल्टी आज अमरीका और यूरोप को अदा करनी पड़ रही है, रेमडीसीवेर जैसी ट्रायल दवाएं आयात हो रही हैं, ऑक्सीजन प्लांट्स जर्मनी से आयात हो रहे हैं।
उत्तर भारत में अराजकता का माहौल व्याप्त हो चुका है और लगभग ऐसी ही स्थिति पूरे देश की है।
वैक्सीन आने और लगवाने के बाद,सोशल दूरी, मास्क, लॉकडाउन सभी प्रपंचों को एकसाथ अपनाने के बाद भी स्थिति बद से बदतर हो रही है।
वहीं देश के प्रशासन और जनता दोनो ने अगर आयुर्वेद को हृदय से अपनाया होता तो हर वर्ष की भांति वसंत का संक्रमण चुपचाप आकर शांति से चला जाता, दिनचर्या-ऋतुचर्या और शारीरिक श्रम को अपनाए रहते तो दोष दूषित ना होते , अग्नि प्रखर रहती और संक्रमण सरलता से दूर हो जाता।आम जनता का शोषण नहीं होता, देश चिकित्सा में आत्मनिर्भर और स्वावलंबी रहता बल्कि पूरे विश्व का मार्गदर्शन करता।