चेन्नै । आज – कल टीपू सुल्तान के ऊपर बने फिल्म पर रोक की मांग सोसल मीडिया पर ज़ोर पर है। कारण, फिल्म में टीपू सुल्तान जैसा क्रूर और हिन्दू विरोधी था उसे ऐसा नहीं दिखाया गया है। उसकी छवि को साफ – सुथरी दिखलाई गई है। जैसा पाठ्यक्रम में है।

टीपू सुल्तान दक्षिण भारत के मैसूर का सुल्तान हुआ और अपने समय में दक्षिण भारत में सैकड़ों मंदिरों को को तोड़ने का प्रमाण मिलता है, साथ ही बहुतों को रूपांतरित करने के भी प्रमाण मिलते हैं।

कुछ जीवंत प्रमाण देखने हैं तो चेन्नै से 154 किलोमीटर की दूरी पर सेंजी किला है। वहाँ एक भव्य शिव मंदिर है। इसे टीपू सुल्तान ने ही आंशिक रूप से तोड़ कर इस पर इस्लाम का झण्डा लहराया था। इसके बाद विवाद में लाकर इस शिव मंदिर को बंद करा दिया गया था। कुछ वर्ष पहले तमिलनाडू की एक संस्था “हिन्दू मुन्नानी” ने तमिलनाडू की सरकार के साथ एक बड़ी लड़ाई लड़ कर इस मंदिर का नवीकरण करवाया था।

इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के लिए इसलिए इस लिए मांग उठ रही है क्योंकि उसमें टीपू सुल्तान के चरित्र को एक नेकदिली सुल्तान के रूप में दिखलाया गया है जो सत्य से परे है। इस विषय पर सन्दीप आर्य ने अपने पोस्ट में लिखा है की टीपू सुल्तान अपने पिता हैदर अली के मैसूर साम्राज्य में एक सैनिक भर था। लेकिन अपनी ताकत के बल पर वो 1761 में मैसूर के शासक बना और शासक बनते ही उसने गैर मुस्लिमों पर ज़ुल्मो सितम करना शुरू कर दिया। जो की सत्य है।
19 जनवरी 1790 को बदरुज्जमा खान को लिखे टीपू के पत्र में है की, ‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल ही में मालाबार में मैंने गज़ब की जीत हासिल की और चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘रामन नायर’ के खिलाफ जल्द हमला बोलूंगा।
दक्षिण भारत के असंख्य लोगों से यह बात छिपी नहीं है कि टीपू का शासन हिन्दू जनता के विनाश और इस्लाम के प्रसार के अलावा कुछ न था। यहां तक कि अंग्रेजों से उसके द्वारा किए युद्ध अपना राज और अस्तित्व बचाने के लिए मात्र थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए टीपू ने केवल फ्रांस ही नहीं, ईरान, अफगानिस्तान को भी हमले के लिए बुलाया था। अत: अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई को ‘देशभक्ति’ कहना दुष्टता, धूर्तता या घोर अज्ञानता है।
टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त सैनिक अभियान का वर्णन करते हुए बार्थोलोमियो ने लिखा है, ‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे 30,000 सैनिक थे। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फांसी पर लटका दिया गया था। पहले स्त्रियों को लटकाया गया तथा उनके गले से उनके बच्चे बांध दिए गए थे। उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नंगे शरीर हिन्दुओं और ईसाइयों को हाथी के पैरों से बांध दिया और हाथियों को तब तक इधर – उधर चलाता रहा जब तक उनके शरीरों के टुकड़े – टुकड़े नहीं हो गए।  मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस – नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया।’
18 जनवरी 1790 को सैयद अब्दुल दुलाई को लिखे पत्र में टीपू के शब्द हैं, ‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फ़ज़ल से कालीकट के लगभग सभी हिन्दू इस्लाम में ले आए गए।
मेजर अलेक्स डिरोम ने लंदन में 1793 में अपनी पुस्तक ‘थर्ड मैसूर वॉर’ प्रकाशित की, जिसमें वह अपने को ‘सच्चे मजहब का संदेशवाहक’ और ‘सच्चाई का हुक्म लाने वाला’ घोषित करता था। ऐसे प्रामाणिक विवरणों की संख्या अंतहीन है। जो दिखाती है कि लड़कपन से टीपू का मुख्य लक्ष्य हिन्दू धर्म का नाश तथा हिन्दुओं को इस्लाम में लाना ही रहा था।
‘निशाने हैदरी’ में लिखा है कि टीपू ने ही श्रीरंगपट्टनम की जामा मस्जिद उसी जगह पहले स्थित एक शिव मंदिर को तोड़कर बनवायी थी। इतिहासकार सैयद पी़. ए़. मुहम्मद के अनुसार, केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है। इतिहासकार राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है, ‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है। मंदिरों को आग लगाना, देव – प्रतिमाओं को तोड़ना और गायों का सामूहिक संहार करना उसका और उसकी सेना का शौक था। तलिप्परमपु और त्रिचम्बरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है।’
बॉम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित ‘टीपू सुल्तान विलन या हीरो?’ देखी जा सकती है। जिसे पढ़कर कोई संदेह नहीं रहता कि यदि एक सौ जनरल डायर मिला दिए जाएं, तब भी निरीह हिन्दुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा। ब्रिटिश अधिकारी विलियम लोगान ने टीपू पर लिखी अपनी किताब मालाबार मैनुअल में टीपू को धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि एक असहिष्णु और निरंकुश शासक बताया है।
टीपू ने हिन्दुओं को एक विकल्प दिया था ‘या इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बन जाओ, या तलवार की भेंट चढ़ो’ टीपू के इस ‘स्वॉर्ड ऑर कैप’ का उल्लेख कई किताबों में मिलता है। जिसने कुर्ग में एक ही बार में 70,000 हिन्दुओं को बलात् इस्लाम में कन्वर्ट किया और उन्हें गोमांस खाने पर मजबूर किया। उस टीपू के घृणित, क्रूर इतिहास को बदलकर ‘सामासिक संस्कृति’ का प्रतीक या ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी योद्धा’ का खिताब दे देना एक राजनीतिक कारस्तानी मात्र है।
सन् 1990 में संजय खान ने दूरदर्शन पर अपना सीरियल ‘स्वॉर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’ दिखाया था, तो उस पर कड़ी आपत्ति यही थी कि एक मनगढंत उपन्यास के आधार पर बने उस सीरियल में टीपू के बारे में झूठी बातें बताकर उसे देशभक्त, उदार आदि दिखाया गया था। तब, मार्च 1990 में अंग्रेजी साप्ताहिक ‘द वीक’ को दिए एक साक्षात्कार में खान ने स्वीकार किया था कि जिस गिडवाणी लिखित उपन्यास पर आधारित उनका सीरियल था, उसके विवरण ‘इतिहास की दृष्टि से सच नहीं हैं।
फिर भी बड़े दुर्भाग्य की बात है कि टीपू जयंती समारोह का आयोजन कांग्रेस शासन के दौरान सरकारी तौर पर मनाने की शुरूआत की गई थी। 2015 में तत्कालीन कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने इसका पहला आयोजन किया था। बाद में कांग्रेस और जेडीएस की गठबंधन सरकार ने इसे जारी रखा था। जिसका भाजपा ने जमकर विरोध किया था। कर्नाटक में येदियुरप्पा सरकार द्वारा मैसूर शासक टीपू सुल्तान के 270वें जन्म दिवस समारोह पर प्रतिबंध लगाए जाने और स्कूली किताबों से उनके इतिहास के पाठ को हटाए जाने के ऐलान से विपक्षी कांग्रेस ने टीपू का ज़ोरदार पक्ष लिया था।
बाद में यह मामला कर्नाटक हाईकोर्ट में गया। हाईकोर्ट ने मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा ” टीपू कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं बल्कि राजा था जो सिर्फ अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया।”
अतः समझा जा सकता है कि किस तरह राजनीतिक उद्देश्यों से इतिहास का मिथ्याकरण करने की कोशिशें लगभग सौ साल से चल रही हैं और टीपू को सम्मानित करने की मांग कर – करके हिन्दुओं के घावों पर नमक छिड़कने का काम किया जाता रहा है।

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