चेन्नै. नयी शिक्षा नीति को लेकर कई कयास लगाये जा रहे हैं. सबसे ज्यादा क्यास इस बात का है की अंगरेजी को आवश्यक नहीं मानते हुए प्राथमिक कक्षा तक स्थानीय राष्ट्र भाषा में पढ़ाने पर जोर दिया गया है. यह कोई नयी बात नहीं है. पहले भी ऐसे ढोल गढ़े गए है. सभी समय इसकी पोल ही खुली है. इस बार भी कुछ ऐसा ही होने वाला है, क्योंकि इसे लागू करने को लेकर कोई कड़े नियम नहीं बने है. भारत की जनता बिना कड़े कानून और नियम के सुनती नहीं है. ऐसे में जो लोग डर रहे है, उन्हें डरने की जरुरत नहीं और जो लोग ख़ुशी से पागल हो रहे हैं, उन्हें ढोल बजाने की जरुरत नहीं.

नयी शिक्षा नीति को नयी तब मानी जाती जब उसमें भारत की गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्थता को ओर बढ़ते कदम दिखाई देते. लेकिन ऐसा कुछ नहीं है. हाँ ! कुछ है तो इतना ही की पुरानी पड़ी गाड़ी में कुछ कील और कुछ पेंच बदलने का प्रयास किया गया है. जिसे लेकर ख़ुशी प्रगट करने जैसा कुछ नहीं है. पहले भी पढाई के बाद नौकरी मिल जाये ऐसी ही पढाई थी. और आज भी इसी विषय पर जोर दिया गया है.

कुछ षडयंत्र कम होंगे, कुछ मास्टरों के कार्य भार कम होंगे. लेकिन क्या बच्चों के पीठ के बस्तों के भार कम हुए ? कान्वेंट और मिशनरी स्कूलों की दादागिरी में फर्क पड़ेगा ? क्या वे अंगरेजी पढ़ाना छोड़ देंगे ? बच्चे अनुवाद अनुवाद कर पढ़ना छोड़ देंगे ? फिर किस बात की ख़ुशी मनाई जाये की नयी शिक्षा नीति आने से सब कुछ बदल जायेगा ?

बच्चे शिक्षा में तभी अव्वल हो सकते हैं – जब उनका शरीर कुशल – निरोगी रहे. वे बीमार नहीं पड़ें. इसके लिए एक समय के स्थान पर डेढ़ समय भोजन देने से स्थिति सुधर जाएगी ? आँगनवाडी में क्या हो रहा है, किसी से छुपा है क्या ? कई राज्यों में बच्चों के भोजन में अंडा मिलाया जाता है. न्यूट्रीशन के नाम पर 7 से 9 घंटे में पचने वाला अंडा क्या बच्चों का मानसिक विकास कर देगा ? फिर क्या नया है?

अब बात करते हैं की नया क्या हो सकता था. 1) महर्षिभट्ट के दिनचर्या के सूक्तों को प्राथमिक शिक्षा में जोड़ा जा सकता था. जैसा की जापान में है. जिसमें प्रात:काल उठने से लेकर रात्रि सोने तक के नियम है. शरीर को स्वास्थ्य रखने के सारे नियम हैं. इतने सरल है की उसकी तुलना में योग – प्राणायाम भी भारी हैं. 2) विज्ञान के शास्वत सिद्धांत जिन्हें सत्युग, त्रेता और द्वापर में हमारे महर्षियों ने खोजा, बाद में उसे किसी ने प्रतिपादित किया. जिसे न्यूटन, आइन्स्टीन आदि चोरों ने चोरी किया, अंगरेजी में अनुवाद किया और अपने नाम से पेटेंट ले लिया. क्या इस मूल विषय को जोड़ा ? 3) वैदिक गणित ; जिसे आज भी संसार लोहा मानता है. जो बच्चे वैदिक स्कूलों में या गुरुकुलों में इस गणित को सीखते हैं उन्हें कैल्कूलेटर की जरुरत नहीं पड़ती है. वे कैल्कूलेटर से भी फ़ास्ट गणना करते हैं. इसे जोड़ा गया क्या ? विचार भी किया गया क्या ? ऐसे 100 से भी अधिक विषय गिनाये जा सकते हैं. जिसे सदियों से शिक्षा माध्यम में जोड़ने का इंतजार है. क्यों नहीं जोड़ा जा रहा है?

अंग्रेजों से पहले और मुगलों के बाद तक भारत में लगभग 10 लाख गुरुकुल थे. इनके 2 प्रकार थे. 1) माध्यमिक स्तर वाले. जो भारत के प्रत्येक गाँव और शहरों में थे. जिनकी संख्या 1 से लेकर 3 तक थे. इसके बाद लगभग 120 कोस पर एक गुरुकुल जो उच्च शिक्षा के लिए होते थे. ऐसे 1000 से अधिक गुरुकुल थे. जिसे फिरंगी मेकोले ने दस्तावेजों में “हायर लर्निंग इंस्टीच्युसन” कहा. इनमें से 8 त्रिलोक स्तर के थे. जिसे मुगलों अति मनोरंजन के लिए तोड़ डाला, जला डाला. जो बच गया उसे फिरंगियों ने लूट कर लन्दन ले भागा.

शिक्षा 3 स्तर पर हुआ करते थे. 1) प्राथमिक ज्ञान 5 वर्षों तक अपने माँ – बाप के साथ. 2) माध्यमिक शिक्क्षा गाँव के गुरुकुल में. जहाँ 8 विषयों को पढ़ाने के लिए 1 गुरु हुआ करते थे. जिनमें भाषा, गणित, संगीत, स्वास्थ्य, अर्थशास्त्र, राजनीति, गृहस्थी और इतिहास. माध्यम अद्भूत. जिसे फिरंगी मेकाले ने “मोनिटेरिअल एजुकेशन सिस्टम” कहा. शुल्क माँ – बाप की स्वेक्षा. सभी अपने – अपने सामर्थ्य से देते. गुरूजी की गृहस्थी मूलत: उनकी कृषि व्यवस्थता से चलती थी. इस स्तर को उत्कृष्टता से उतीर्ण करने वाले को उच्चतर शिक्षा के लिए 120 कोस दूर “हायर लर्निंग इंस्टीच्युसन” वाले विश्व स्तर के गुरुकुलों में स्थान मिलाता था. कोई डोनेसन नहीं, कोई पैरवी नहीं. कोई अमीरी, कोई गरीबी नहीं, सभी के लिए एक जैसा. एक जैसा अवसर.

वेद ; एक अद्भूत विज्ञान की शिक्षा, जिसमें विकास, लेकिन पर्यावरण के विनाश पर नहीं. मनुष्य का विकास साथ – साथ पर्यावरण की कोई हानि नहीं. ऐसे – ऐसे 4 वेद, 18 पुराण (इतिहास). ऐसे – ऐसे उच्च कोटि के तांत्रिक निकले जिनके बनाये मंदिर, आज भी कोई इस प्रकार के निर्माण की कल्पना नहीं कर सकता.

स्वतंत्रा के बाद, न ही अपनी शिक्षा व्यवस्थता बनी. न ही अपनी राजनीति खड़ी हुई, न ही अपनी स्वास्थ्य व्यवस्थता बनी, न ही अपनी तकनीक खड़ी हुई. केवल नौकरों की लम्बी लाइन लगी. अभी भी लगी है. पहले अंगरेजों के लिए, अब काले अंगरेजों के लिए. फिर क्या अंतर है. वही ढोल, उसी का पोल.

  • साभार, पल्लव टाइम्स

सेवारत्न गव्यसिद्धाचार्य डॉ निरंजन कु वर्मा

Sevaratna Gavyasiddhachary
Dr. Niranjan K Verma

Advance Ayurvedik Therepist (TN Govt.), M.D.(panchgavya), M.D.(Cell Medicine), FRSH, FWSAM, Editor – Pallav Times.

1 comment on “नयी शिक्षानीति ; ढोल है ; पोल ही पोल

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