चेन्नै. आज कल सोशल मिडिया पर एक जानकारी बहुत ही वायरल हो रही है की “मंदिरों में जमा धार्मिक पूंजी” को आर्थिक संकट में काम में लाई जाय. उसे विकाश में लगाया जाय. साथ ही एक दूसरा समाचार वायरल हो रहा है की केरल और तमिलनाडु के मंदिरों से प्रदेश सरकारें पैसा वसूल कर मस्जिदों और चर्चों में मुफ्त का भोज करवा रही है.

यह कोई नई बात नहीं है. भारत में जब से मंदिरों का अधिग्रहण सरकार ने किया है. वहां चढ़ावे पर आया हुआ धन और दान में प्राप्त धन सरकार ले लेती है और रख – रखाव के नाम पर कुछ वापस कर देती है. जैसे – देश भर से कर वसूली कर सरकार पैसे को दिल्ली ले जाती है और फिर वहां से आवंटन होकर फिर से उसी जनता के पास भेजी जानी होती है जिससे पैसे वसूले गए. इस आवाजाही में 85 प्रतिशत धन नेता और अधिकारी – ठेकेदार बीच में ही हजम कर जाते हैं.

यहाँ पर प्रश्न यही उठता है की एक ओर सरकार घूसखोरी को बंद करना चाहती है और दूसरी ओर घूसखोरी के इस बने – बनाये प्रोसेस को मिटाना भी नहीं चाहती. क्योंकि सरकारे घूसखोरी बंद करना चाहती नहीं. इससे घूसखोरी बंद करने वालों का भी श्रोत बंद हो जायेगा. ऐसे में दो रास्ते हैं. 1) जनता से बहुत ही कम कर लिया जाये, जनता अपने लिए धन कोष स्वयं तैयार कर जमा करे, जिसे वह आपातकाल में खर्च करे. 2) कर वसूली का विकेंद्रीकरण कर दिया जाये. एक गावं – शहर में जितना कर वसूला जाये, उसका उतना ही पैसा दिल्ली भेजी जाये जितने में केंद्रीय एजेंसियों का खर्च निकल जाये. यही है पंचायती राज का मूल.

ऐसे ही हम मंदिरों के लिए भी लागू कर सकते हैं. मंदिरों में जो पैसा आ रहा है वह पैसा देने वाले ने किस लिए दिया है? इस विचार के साथ ही उस पैसे का खर्च होना चाहिए. यदि उसे दूसरे मद में खर्च किया जाता है तो यह सरासर गलत है और देने वाले की आस्था पर चोट है. क्या मंदिरों में दान देने वाले ने यह सोच कर दिया है की उसके पैसे से किसी को हज की यात्रा कराई जाएगी ? या फिर रमजान में मस्जिदों में भोज कराया जायेगा? या फिर चर्चों के विकाश में लगाया जायेगा? देर – सबेर इन प्रश्नों का उत्तर देश की जनता मांगेगी.

आज कोरोना लॉक – डाउन के बाद हर आदमी खासकर व्यापारी‚ कारखानेदार और मजदूर अपने भविष्य को लेकर चिंतित है. अर्थव्यवस्था के इस तेजी से पिछड़ जाने के कारण प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक सार्वजनिक रूप से आर्थिक तंगी‚ वेतन में कटौती‚ सरकारी खर्च में फिजूलखर्च रोकना और जनता से दान देने की अपील कर रहे हैं. यह सब इसी लिए की सरकारें जनता के पास ईमरजेंसी में खर्च करने लिए पैसे छोड़ती ही नहीं. ऐसे में सबका ध्यान भारत के मंदिरों की तरफ भी गया है. बार–बार यह बात उठाई जा रही है कि इस धन को धर्मस्थलों से वसूल कर समाज कल्याण के या विकास कार्यों में लगाया जाए. इसे मैं गलत आरोप मानता हूँ की मंदिरों में जमा धन‚ बेकार में पड़ा है. या इसका दुरुपयोग हो रहा है.

फिर भी देश पर संकट आया है तो इस धन को हम लोक कल्याण में खर्च करेंगे पर चिंता यही है की इस धन का नेताओं और अफसरशाही में लूट हो जाएगी. तमाम कानूनों‚ पुलिस‚ सी.बी.आई.‚ सीवीसी‚ आयकर विभाग और न्यायपालिका के बावजूद प्रशासनिक तंत्र में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है. जो आज कोरोना संकट के समय भी देखने को मिला है.

इसलिए जनता का विश्वास सरकार के हाथ में धर्मार्थ धन सौंपने में नहीं है. आस्था एक ऐसी चीज है जिसे कानून के दायरों से नियंत्रित नहीं किया जा सकता. आध्यात्म और धर्म की भावना न रखने वाले‚ धर्मावलंबियों की भावनाओं को न तो समझ सकते हैं और न ही उनकी सम्पत्ति का ठीक प्रबंधन कर सकते हैं.

इसके लिए जरूरी है कि उस धर्म के मंदिरों और संस्थाओं के समितियों के सदस्य बाहरी लोग न हों और वे भी न हों जिनकी आस्था उस मंदिर में न हो. जब साधन सम्पन्न भक्त मिल – बैठकर योजना बनाएंगे तो दैविक द्रव्य का बहुजन हिताय सार्थक उपयोग ही करेंगे. जैसे हर धर्म वाले अपने धर्म के प्रचार के साथ समाज की सेवा के भी कार्य करते हैं.

कोरोना संकट के समय लगभग सभी धर्मस्थलों खासकर गुरुद्वारों ने बढ़ – चढ़कर जरूरतमंद लोगों के लिए उदारता से भंडारे चला रखे हैं. सामान्य काल में भी इन धर्मस्थलों द्वारा अनेक जनोपयोगी कार्य किए जाते हैं. जैसे अस्पतालों‚ शिक्षा संस्थानों‚ रैन बसेरों‚ अन्य क्षेत्रों‚ आपदा राहत शिविरों आदि का व्यापक और कुशलतापूर्वक संचालन किया जाता है. क्योंकि इन सेवाओं को करने वालों का भाव नर – नारायण की सेवा करना होता है न कि सेवा के धन का गबन करना. जैसा कि प्रायः सभी प्रशासनिक तंत्रों में होता है.

इसलिए आवश्यकता है कि उस धर्मावलंबियों की जो प्रबंध समितियां गठित हों‚ उनकी पारदर्शिता एक दिशा – निर्देश जारी करके सुनिश्चित कर देनी चाहिए. इन समितियों पर निगरानी रखने के लिए उस समाज के सामान्य लोगों को लेकर विभिन्न निगरानी समितियों का गठन कर देना चाहिए‚ जिससे पैसे – पैसे पर जनता की निगाह बनी रहे.

देश में ऐसे हजारों धर्मस्थल हैं‚ जहां नित्य धन की वर्षा होती रहती है. इस धन का सदुपयोग हो इसके लिए उन समाज को आगे बढ़कर स्वयं भी नई दिशा पकड़नी चाहिए और दैविक द्रव्य का उपयोग उस धर्म स्थान या धर्म नगरी या उस धर्म से जुड़े साधनहीन लोगों की मदद में करना चाहिए. इससे उस धर्म के मानने वालों के मन में न तो कोई अशांति होगी और न कोई उत्तेजना.

ऐसे में मंदिरों के धन पर अगर सरकार नजर डालती है तो यह बड़ा संवेदनशील मामला हो जाता है. तब सवाल उठता है कि जनता की खून – पसीने की कमाई के हजारों लाखों करोड़ रुपया बैंकों से कर्ज लेकर भाग जाने वाले उद्योगपतियों या देश में ही रहने वाले वे उद्योगपति जिन्होंने अथाह दौलत जमा कर रखी है और अपने पारिवारिक उत्सवों में सैकड़ों करोड़ रुपया खर्च करते हैं‚ उनसे क्यों न धन वसूला जाए?

प्राकृतिक संसाधनों का नृशंस दोहन‚ करों की भारी चोरी‚ बैंकों के बिना चुकाए बड़े – बड़े ऋण‚ एकाधिकारिक नीतियों से बाजार पर नियंत्रण और सरकारों को शिकंजे में रखकर अपने हित में कर नीतियों का निर्धारण करवाकर बड़े मुनाफे कमाए जाते हैं। ऐसे में केवल मंदिरों को ही सजा क्यों दी जाएॽ

धन संग्रह के अपराध की सजा मिलनी ही है तो वह राजपरिवारों‚ धर्माचार्यों को ही नहीं‚ बल्कि उद्योगपतियों‚ राजनेताओं‚ नौकरशाहों और मीडिया के मीडियाधीशों को भी मिलनी चाहिए।

 

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