चेन्नै. ऋषियों के बनाये भारत में जन्म लेने वाले “सौभाग्यशाली” होते थे,ऐसी धरती पर जन्म लेकर मोक्ष की अवधारणा के लिए व्यक्ति प्रेरित होकर अपने जीवन को सफल बनाता था।
ऋषियों के भारत में जीविकोपार्जन का मुख्य स्त्रोत कृषि-कार्य था। गौ-सेवा करके ना सिर्फ अपने जीवन को तारने का काम होता था अपितु इस देश में गौ-पालन करके दूध की नदियां बहाई जाती रही हैं। इस देश में इतना दूध होता था की ना सिर्फ प्रत्येक परिवार का प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ दूध पीकर भी अपना पेट भर सकता था।
अत्यधिक दूध होने के कारण ऋषियों ने दूध से दही बनाने का विज्ञान भी पूरी दुनिया में सबसे पहले भारत ने ही खोजा।दही को मथकर घी बनाने का विज्ञान भी भारत ने ही दिया।अत्यंत सुगंधित-बेहद पौष्टिक इस घी की मांग पूरी दुनिया में थी। सोने के बदले पूरी दुनिया में घी बेचा जाता था जिससे हमारी अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था थी।
इस अर्थव्यवस्था में केवल घी का ही निर्यात होता था सिर्फ ऐसा नही था बल्कि घी के माध्यम से “स्वास्थ्य एवं संवर्धन” का निर्यात पूरी दुनिया के लोगों को होता था। घी के माध्यम से भारतीय संस्कृति और प्रेम का निर्यात होता था।
जहां आज अमरीका और यूरोप की सभ्यताएं हथियार,वैक्सीन,केमिकल,जेनेटिकली मॉडिफाइड बीज,रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड्स बेचकर पूरी दुनिया में बीमारियां और हाहाकार फैला रहे हैं वहीं अंग्रेजों और उससे पहले मुग़लों की गुलामी तक भी भारत ने अपने घी,औषधि,मसाले,शिक्षा,भाषा,धर्म के माध्यम से हजारों वर्षों तक समस्त विश्व को खुशहाल,सुखी और सम्पन्न रखा।
अपनी इसी कृषि और गौसंवर्धन के माध्यम से अपनी संस्कृति के मानने वाले लोगों को शुद्ध शाकाहारी बनाये रखा।
उत्तर भारत के पंजाब,हरियाणा,राजस्थान एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राज्य आजादी से पहले लगभग शुद्ध शाकाहारी थे लेकिन भोग-वादी काले अंग्रेजों ने अपनी नीतियों से इन्हें मांसाहार की ओर धकेलना शुरू कर दिया।
इन राज्यों में मांसाहार केवल मुसलमानों और ईसाइयों तक ही सीमित था। उत्तर भारत में भी कृषि एवं पशु-पालन ही मुख्य जीविकोपार्जन का माध्यम रहा है।
यहां कृषि एवं पशु-पालन में बहुसंख्य रूप से क्षत्रिय समाज जिसमें जाट,गुज्जर एवं राजपूत समाज के लोग हैं,फिर ब्राह्मण जाति एवं वैश्य जाति के लोग मुख्य रूप से कृषि कार्य में हैं और इन्हीं के समकक्ष हरिजन जाति के लोग इनको कृषि में सहकारी होते थे।
उपरोक्त सभी जातियां हजारों पीढ़ियों से शुद्ध शाकाहारी हैं। ना सिर्फ अपने जीवन में ये शाकाहारी हैं अपितु जीविकोपार्जन भी शाकाहारी उद्योगों से ही होता आया है।
लेकिन नहरों का जाल बिछाकर कृषि करवाने से बड़े क्षेत्र में खारापन बढ़ गया और कुछ साल अच्छी फसल मिलने के बाद खारेपन,यूरिया-डी ए पी,केमिकल पेस्टिसाइड्स से खेती बर्बाद कर दी गयी।
इसी भोगवादी सोच ने समस्या का भारतीय समाधान निकालने के बजाए उसे और जटिल बनाने के लिए खारी जमीन जहां खेती नही हो पाएगी वहां झींगों की मांसाहारी खेती शुरू करने के बड़ी शासकीय योजना का खाका बना लिया है।
अभी भारत के तटीय क्षेत्रों से 46000 करोड़ का मत्स्य निर्यात होता है जिसमे 70%हिस्सा झींगा(प्रॉन) निर्यात का है।वर्तमान मोदी सरकार अब उत्तर भारत के शाकाहारी किसानों की बंजर भूमि पर झींगा उत्पादन का लोभ देकर शाकाहारी किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें भोगी किसान बनने पर प्रशासनिक खाका तैयार कर रही है।अगले पांच वर्षों में इन्ही चार राज्यों के दम पर मत्स्य निर्यात को एक लाख करोड़ तक पहुँचाने में मत्स्य,पशुपालन एवं डेरी मंत्रालय के समस्त संसाधनों को झोंक दिया गया है।
ढाई लाख हेक्टेयर बंजर हो चुकी भूमि पर झींगा पालन की वृहद योजना बनकर तैयार है।
मतलब वर्तमान पीढ़ी झींगा उत्पादन करेगी,अगली पीढ़ी उसका भोग करेगी,उसे देश और दुनिया में बेचेगी और उसके अगली पीढ़ी तक घोर मांसाहार फैल चुका होगा।
वहीं दूसरी तरफ बंजर हो चुकी भूमि को अगर गौचर के लिए छोड़ दिया जाए तो मात्र कुछ वर्षों में गाय के गोबर-गौमूत्र से समस्त खारापन दूर हो सकता है अपितु गौ-धन की संख्या वृद्धि होने से देश में शुद्ध दूध की कमी को पूरा करके घी के निर्यात का मार्ग दोबारा खोला जा सकता था।
अंग्रेजी आंकड़ों के हिसाब से सन 1930 तक हम 2000टन शुद्ध घी का निर्यात करते थे अर्थात देश की आबादी घी से तृप्त होकर निर्यात भी कर रही थी।
वहीं आज देश की 80% आबादी को शुद्ध दूध पीने को नहीं मिल रहा तो घी कितनों को मिल रहा है यही सोचनीय विषय है।
आज उन्हीं उत्तर भारतीय प्रदेशों पंजाब,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान को दोबारा गौ-पालन की योजना बनाकर पूरे देश को शुद्ध दूध पिलाकर देश को स्वस्थ किया जा सकता था,अपितु दूध के बाद शुद्ध घी बनाकर पूरी दुनिया को फिर से घी निर्यात करके विदेशी मुद्रा के साथ-साथ स्वास्थ्य और आरोग्यता का आशीर्वाद भी देश से बीमार हों रही दुनिया को मिलता।ना सिर्फ मांसाहारी होते देश में शाकाहार को बढ़ावा मिलता अपितु पूरी दुनिया को शाकाहारी होने का मूल मंत्र भी भारत से निर्यात हो पाता।
दुर्भाग्य से देश के नीति निर्माता पश्चिम के भोग में इतना लिप्त हो चुके हैं कि अपनी समस्याओं के समाधान भी वहीं से आयात कर रहे हैं और दुनिया को तो छोड़ो अपने देश को भी गर्त में डालने के लिए दिन रात आतुर दिखते हैं।
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