“आयुष मंत्रालय”; शाकाहार ताख पर

जैसे ही आयुर्वेद का भाव मन में आता है ; वैसे ही शाकाहार का जैसे नि:शब्द उच्चारण हो जाता है. इतना गहरा सम्बन्ध है आयुर्वेद का शाकाहार के साथ. आयुर्वेद प्रकृति के प्रकृति का सम्पूर्ण विज्ञान है. इसके लिए इसमें वह सब कुछ है जो – जो प्रकृति में है. संसार में जितनी भी चिकित्सा पद्धतियाँ हैं सभी इसी आयुर्वेद से निकली हैं. सभी ने अपने – अपने भूगोल के आधार पर इसमें से सूत्रों को लेकर स्थानीय उपलब्धता को आधार मानकर थेरेपियाँ बनाई है.

कुछ उदाहरण से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है. 1) यूनानी चिकित्सा – मिश्र देश के लोगों ने भारत के आयुर्वेद से अपने भूगोल के आधार पर जीवजगत आधारित चिकित्सा थेरेपी बनाए. जिसमें औषधियों के निर्माण में जीवों का उपयोग किया गया. कारण ; मिश्र के भूगोल में वनस्पतियाँ बहुत कम है. नहीं के बराबर है. यह उनकी मजबूरी थी. जो आज यूनानी चिकित्सा के नाम से भारत में भी प्रचलित है. 2) जर्मनी में हनीमेन सैमुअल क्रिश्चन ने आयुर्वेद से आणविक चिकित्सा वाले भाग को लेकर होमिओपैथी बनाये. कारण ; उनके यहाँ भी वनस्पति बहुत कम है. सो वनस्पतियों के आणविक उपयोग को आधार बनाया. कम से कम वनस्पतियों से अधिक से अधिक लोगों की चिकित्सा. अर्थात सभी ने अपने – अपने भूगोल में उपलब्धता के आधार पर थेरेपियाँ बनाये.

इन सभी के बीच भारत के पास अधिकाधिक वनस्पतियाँ हैं. विशेष कर हिमालय से लेकर गंगा और उपगंगा के चारों तरफ. इसलिए भारत में जैसा आयुर्वेद स्थापित हुआ जिसमें वनस्पतियों को आधार माना गया. मांसाहार और धातुहार के लिए कोई अधिक स्थान नहीं रहा. समय के साथ आयुर्वेद की पहचान शाकाहार के साथ हो गया. इसीलिए आयुर्वेद आते ही शाकाहार नि:शब्द उच्चारित हो जाता है. आयुर्वेद का प्रचार भी इसी अनुरूप हुआ. इसीलिए इसमें मांसाहार का कोई स्थान नहीं है. भूगोल के गणित से भी इसकी कोई आवश्यकता नहीं है.

इन्ही कारणों से भारतीय आयुर्वेद अर्थात सम्पूर्ण शाकाहार. लेकिन जब कोई इसमें मांसाहार को जबरन घूसाना चाहे तब शास्त्रीय शुक्त उनका बचाव कर लेते हैं. लेकिन भारतीय आयुर्वेद दिनचर्या में अपने भूगोल के अनुरूप मांसाहार को कतई स्थान नहीं देता. इसलिए जितने भी पारंपरिक वैद्य भारत में कार्यरत हैं उनका जीवन शाकाहार है. चाहे वे केरल के पारंपरिक वैद्य हों अथवा हिमालय के. उनकी दिनचर्या से लेकर कर्म में “शाकाहार जीवन की श्रेष्टता” है. कहें ; शाकाहार की कट्टरता है. राजस्थान और गुजरात इसके बड़े उदहारण हैं. आज भी शाकाहार वहां की दिनचर्या में है.

इन सभी के बीच अपवाद भी है. जैसे “काबुल में गधे”. एक वर्ग ऐसा भी है जो इसे सैधांतिक रूप से तो मानता है लेकिन दिनचर्या में ताक पर रख देता हैं. आज भारत सरकार के आयुष मंत्रालय (आयुर्वेद की पुनर्स्थापना का मंत्रालय) द्वारा एक पुस्तक प्रकाशित किया गया है जिसे सभी भाषाओँ में अनुवाद करने की अपील भी की गई है. पुस्तक का नाम है – आयुष्मान भारत “ट्रैडिसनल फ़ूड रेसिपी” फ्रॉम आयुष सिस्टम आफ मेडिसिन. इस पुस्तक को मिनिस्ट्री ऑफ़ आयुष ने प्रकाशित किया है. इस पुस्तक के 16 वें पृष्ट पर एक रेसिपी है जिसका नाम है “मांस रसम” मेडिकेटिड मटन शूप. जिसमें बकरे का मांस ; विशेष कर बकरे के पैर का उपयोग पर आधारित शूप बनाने की विधि दी गई है. जिसका प्रस्तावना आयुष के सचिव वैद्य राजेश कोटेचा ने लिखा है. लिखने की वकालत आयुष के संयुक्त सचिव रोशन जग्गी ने की है. संयुक्त सलाहकारों में डॉ ए रघु और डॉ सुलोचना भट्ट का नाम है.

इसे क्या कहें – जब आयुष के सचिव ही मांसाहार को मनुष्य के लिए हितकर रेसिपी से जोड़ कर प्रचार कर रहे हों. क्या अंतर रह गया आयुष (आयुर्वेद) और अलोपैथी में ? पहले से ही आयुर्वेद को अलोपैथी के बैशाखी पर चला रहे हैं. आयुर्वेद को अलोपैथी के चस्मा से देख कर चला रहे हैं. ऐसे में हम आयुर्वेद के बढ़ते संभावना पर कैसे विचार कर सकते हैं ? क्या ये लोग “काबुल में गधा” और “सब्जी में आलू” वाले मुहावरे को चरितार्थ नहीं कर रहे हैं?

आज सम्पूर्ण आयुर्वेद को मॉडर्न फिजिक्स और मॉडर्न कमेस्ट्री के शब्दों से भर रखा है. विकलांग जाँच सिस्टम की बैसाखी पर सवार कर रखा है. जिसकी औकात चिकित्सा करना नहीं जीवन भर अभ्यास (प्रक्टिस) करना है. चिकित्सा क्या जाना नहीं ; जीवन भर ट्रीटमेंट (क्षणिक आनंद) देना है. क्या यही आयुर्वेद की पहचान है?

इसलिए आयुष के सचिव वैद्य राजेश कोटेचा जी. अपनी समझदानी को सुधार लीजिये. अब भारत जागरुक हो रहा है. आयुर्वेद को अलोपैथी के बैसाखी पर चलाना छोड़ दीजिये. आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान का समुद्र है. भूगोल और मौसम के साथ इसका अनोखा सम्बन्ध है. भारतीय आयुर्वेद को भारतीय ही रहने दीजिये. भारतीय आयुर्वेद में मांसाहार अंतिम विकल्प है, दिनचर्या में नहीं है.

  • वन्दे मातरम
  •  साभार पल्लव टाइम्स

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