चेन्नै. हम भारत के लोग विषधरों के साथ जीने वाले हैं. सपेरे जातियां अपने घरों में उन विषधरों को पालते थे जिनसे संसार थर्राता है. विषधरों को दिखा – दिखा कर अपनी रोजी – रोटी चला लेते थे और विषधरों से सभी को परिचित करा कर विषधरों से लोगों को भय मुक्त कर देते थे. इसलिए भारत का कोई बच्चा विषधरों से डरता नहीं था. एक विषधर होता है “कलिया नाग” एक सेकंड के दसवें समय में उसका विष मगज पर चढ़ जाता है. ऐसी सभ्यता – संस्कृति में जीने वाले लोग तो “कोरोना” को क्या कहेंगे? “तू किस खेत की मूली है?”

हमारे पूर्वजों ने उन विषधरों को भी नाचने का अभ्यास करा दिया था. लेकिन समय ने करवट ली और एक नेताइन हुई हमारे देश में. नाम है श्रीमती मेनका गाँधी. उन्होंने सपेरों, कुम्हारों, कई प्रकार के वनवासियों आदि के रोजगारों पर कुठाराघात करते हुए उन्हें बर्बाद कर दिया. कला और साहसी परम्पराओं को मिट्टी खोद कर गाड दिया. अब हमें विषधरों से डर लगने लगा है. बच्चे तो देख कर उछल जाते हैं. बच्चे अब डरपोक हो गए हैं. पहले जब सपेरे विषधरों का खेल दिखाते थे, तब बतलाते भी थे की किस सांप में विष है और किसमें नहीं. अब तो सभी को विषधरों जान कर मार दिया जाता है. सो अब सांप भी नहीं बचा और सहस भी.

“कोरोना” और सभी प्रकार के वायरसों का भी हाल ऐसा ही है. आज के वैश्विक समाज के साथ एक प्रश्न है – क्या कोई वास्तविक वनवासी इस “कोरोना” से मारा ? कोई वास्तविक गोपालक मरा ? क्या कोई वास्तविक योगी मरे ? क्या कोई प्राकृतिक जीवन जीने वाला मरा ? उत्तर मिलेगा नहीं. आखिर क्यों ? कोरोना उन सभी को पहचानता है ? इस विषय को समझ लें. कोरोना क्या कोरोना से भी बड़े वायरस से डर नहीं लगेगा. क्योंकि आपको पता होगा की कोरोना जैसे वायरसों का आक्रमण कैसे होता है और उससे कैसे बचाना है ?

वैश्विक संसार ने हमें अप्राकृत जीवन में झोंक कर वैसे ही डरपोक बना दिया है, जैसे आज हम विषधरों से अनभिग्य होकर डरते है. जो भी हो, कोरोना ने विश्व को बदल दिया और बदलाव चलता रहेगा. धीरे–धीरे कई राज्य लॉकडाउन में ढील देते जा रहे हैं. देश भर से सूचनाएं आ रही हैं कि जिस तरह का आतंक कोरोना को लेकर खड़ा हुआ या किया गया वैसी कुछ बात नहीं थी.

पारम्परिक पद्धतियों जैसे आयुर्वेद, सिद्धा, होम्योपैथी और पंचगव्य ने बहुत सारे कोरोना पॉजिटिव लोगों को बिना किसी महंगे इलाज के ठीक किया है. इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों ने भी ऐसे कई दावे किए हैं जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्व अध्यक्ष ने एक धमकी भरी चेतावनी जारी की थी. जिसका सार यह था कि इन पारम्परिक इलाजों से कोरोना का कोई मरीज ठीक नहीं हो सकता और वो इसे तभी मानेंगे जब ऐसा दावा करने वाले जान – बूझ कर कोरोना का इंफेक्शन लें और फिर पूरी तरह ठीक हो कर दिखाएं. उनकी यह चेतावनी उसी अहंकार और अज्ञानता का प्रमाण है‚ जिसके चलते अनेक मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने पूरब के सदियों पुराने पारम्परिक ज्ञान का उपहास किया‚ उसे नष्ट करने की कुत्सित चालें चली और विज्ञान के नाम पर मानव जाति के साथ नये – नये हानिकारक प्रयोग किए. जिन्हें बाद में वापस लेना पड़ा. इसलिए मैं बार – बार कहता हूँ की “विश्व स्वास्थ्य संघटन” ड्रग्स माफिया पोषित संघटन है. एलोपैथी के कब्र में लटके हुए पावं को बचाने जी जिद्द भर है.

आज विश्व स्वास्थ्य संघटन की साख गिरी तो क्रियान्वयन भारत के हाँथ में थमा दी. अब देखना यह है की भारत के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री हर्षवर्धन जी अध्यक्ष के पद पर बैठ कर पारम्परिक पद्धतियों जैसे आयुर्वेद, सिद्धा, होम्योपैथी और पंचगव्य को कहाँ तक विश्व स्वास्थ्य संघटन का भाग बना सकते हैं. इसी में उनकी दक्षता सिद्ध होती है, या वे भी ड्रग्स माफियाओं के एजेंट बन कर रह जायेंगे?

जैसे मां के दूध की जगह डिब्बे का दूध और गोबर की खाद की जगह कीटनाशक और रासायनिक उर्वरक. पहले थोपे और फिर इन्हें हानिकारक बता कर हटाया. जहां तक हम भारतीयों की बात है;  भारत का पारम्परिक भोजन‚ पर्यावरण से संतुलन पर आधारित जीवन‚ पारम्परिक औषधियां और विकेंद्रित अर्थव्यवस्था से ही हम सशक्त भारत राष्ट्र बना पाएंगे.

अब वर्तमान की बात करें तो न तो उत्सवों में वैसी भीड जुटेगी‚ न वैसा पर्यटन होगा‚ न वैसे मिलन होंगे और न वैसी चमक – दमक भरी जिंदगी. कुछ महीनों या कुछ वर्षों तक सब सावधान रहते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने का प्रयास करेंगे. जो की बहुत अच्छा है. संसार पर हुए कोरोना के अभूतपूर्व हमले के बाद अब भविष्य में लोग एक दूसरे से हाथ मिलाने‚ गले मिलने और एक दूसरे के घर जाने में भी संकोच करेंगे. चेहरे पर मास्क‚ बार–बार साबुन से हाथ धोना और सामाजिक दूरी बना कर व्यवहार करना‚ जैसी आज अटपटी लग रही बातें आने वाले दिनों में हमारे सामान्य व्यवहार का हिस्सा होंगी.

इसी तरह अब लोग एक – दूसरे को उपहार देने या फल‚ मिठाई और प्रसाद देने में भी संकोच करेंगे. ऐसे सब लेन – देन ऑनलाइन पैसे के ट्रांसफर से ही कर लिये जाएंगे. इसी तरह छोटे बच्चों को स्कूल भेजने में मां – बाप डरेंगे और इसलिए सारी दुनिया में ऑनलाइन शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है. जहां तक सम्भव होगा कार्यालय का काम भी लोग घर से ही करना चाहेंगे.

इस नई कार्य संस्कृति और जीवन पद्धति से सबसे ज्यादा लाभ तो नष्ट हो चुके पर्यावरण का होगा. क्योंकि प्रदूषणकारी गतिविधियां काफी कम हो जाएंगी. लेकिन इसका बहुत दुष्परिणाम मनोविज्ञान पर होगा. लोगों के व्यवहार में चिडचिडापन‚ क्रोध और हताशा बढेगी. बच्चे जब स्कूल जाते हैं तो अपने दोस्तों से मिल कर खुश हो जाते हैं. वे एक दूसरे के अनुभवों से सीखते हैं. खेलकूद से उनका शरीर बनता है और शिक्षकों के प्रभाव से उनके व्यक्तित्व का विकास होता है. ये सब छिन जाएगा, हमारी अगली पीढी के नौजवान डरे और सहमे हुए होंगे.

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