कोरोना ; जिसे महामारी नाम दे दिया गया, इस समय मनुष्य सुख, स्वास्थ्य, जीवन – सुरक्षा और शांति की खोज में है और पता लगाना चाहता है कि सुखी, स्वास्थ्य, सुरक्षा और शांति है कहां – कहाँ है? इसके लिए वह अपनी सोंच पर विचार कर रहा है. सोच की संतुष्टि है तो आदमी सुखी होगा. सोच की संतुष्टि नहीं होती तो आदमी रोता-कलपता रहता है, दुखी बना रहता है.

कठिन यह है कि हम अपनी भावनाओं एवं विचारों पर ध्यान नहीं देते. उन पर हमारी पकड़ और उन पर नियंत्रण भी नहीं है. इसी को हमारे पुराणों में कहा है “ज्ञानेन्द्रियों पर नियंत्रण”. किसके मन में कैसे – कैसे भाव उमड़ – घुमड़ रहे हैं, किसी को पता नहीं. यही भाव हमारी जटिल एवं विकट परिस्थितियों के कारक हैं. हमारी सबसे बड़ी सोच की त्रुटि है कि हमने सुविधा को सुख मान लिया है. सुविधा होने पर भी आदमी सुखी हो, जरुरी नहीं है. सुविधा में अगर सुख देने का सामर्थ्य होता तो कोरोना काल में लोग सुख भोग रहे होते. ज्यादा खर्च करने वाले सुखी होते.

सच तो यही है की पदार्थवादी एवं भौतिकवादी सोच को बदल कर ही हम समस्यामुक्त जीवन जी सकते हैं, कोरोना जैसे महामारी से मुक्ति प् सकते हैं. दुनिया में न सुख है, न दुख है, न शांति है, न अशांति है. जो कुछ सकारात्मक और नकारात्मक है, वह हमारे भीतर है. यह हमारे ऊपर निर्भर है कि हम किसे चुनते हैं? मानसिक बाधा की स्थिति खतरनाक होती है. इसलिए ऐसी बाधा से दूर रहिये. सोच को सकारात्मक बनायें. जहां भी सोच – विचार में विकृति पनपे, वह जगह छोड़ दीजिये. ऐसा करके ही न केवल हम अपने जीवन को बल्कि राष्ट्र के जीवन को भी आत्म-निर्भर बना सकेंगे.

मनुष्य स्वार्थ प्रखर किम सीमा को पर कर गया है. उसे दूसरे का हित – अनहित देखने का अवकाश ही नहीं है, यही कारण है कि आज चारों ओर संकट दिखाई दे रह है. यह इंसान का दिमाग ही है, बाहर का कोई नहीं, जो उसे गलत कामों की ओर ले जाता है.’ पदार्थ के मोह ने व्यक्ति के विवेक पर पर्दा डाल दिया है तो बुद्धि ने जीने की शैली विकृत कर दिया है. बुद्धि एक समस्या को सुलझाती है, दूसरी को उलझाती है और तीसरी को पैदा करती है. अगर ऐसा है तो फिर हम बुद्धि पर ही क्यों ठहर जाते हैं?

हम सनातन व्यवस्थता में स्वयं को जानना चाहते हैं. स्वयं से परिचित होना चाहते हैं. स्वयं का स्वयं के द्वारा मूल्यांकन करना चाहते हैं. इसी को कहते हैं ‘सकारात्मक सोच का निर्माण’. यह वह अवस्था है जिसमें हम जीवन को आनन्द, स्वस्थ, सुरक्षित एवं सुखमय बना सकते हैं. जीवन में असफलता को सफलता में, दुःख को सुख में, विषाद को हर्ष बदल सकते हैं. सचमुच जीवन उनका सार्थक है जो विपरीत परिस्थितियों में भी मुस्कुराते हैं.

जीवन को विषाक्त बनाने वाले तत्व को बहार कर ही हम कोरोना से मुकाबला करने एवं नये जीवन की शुरूआत कर सकते हैं, पर ऐसा नहीं होता क्योंकि जीवन में बहुतेरे छिद्र ऐसा नहीं होने देते. हमें उन छिद्रों को बढ़ने से रोकना होगा. उन्हें बंद करना होगा. इस दिसा में प्रयत्न अवश्य परिणाम देता है, जरूरत कदम उठाकर चलने की होती है, विश्वास की शक्ति को जागृत करने की होती है.

मनुष्य जीवन में नफरत की इतनी बड़ी – बड़ी चट्टानें पड़ी हुई हैं, जो मनुष्य – मनुष्य के बीच खाई पैदा कर देती है. यहीं पर विश्वास की शक्ति इतनी मजबूत है खाई को पता जा सकता है. हमारा शरीर एक बगीचे की तरह है और दृढ़ इच्छाशक्ति इसके लिए माली का काम करती है, जो इस बगिया को बहुत सुंदर और महकती हुई बना सकती है. किसी भी तरह की मानसिक बाधा की स्थिति खतरनाक होती है. इसलिए खुद को स्वतंत्र रखें. बाधाओं को अपनी सफलता से जोड़ें. लोग इन्हीं स्थितियों में मजबूत होते हैं और खराब समय को ही अपने जीवन को स्वर्णिम ढंग से रूपांतरित करने वाला समय बना देते हैं. यहीं पर कुछ लोग विशिष्ट अवसर की प्रतीक्षा में रहते हैं. वे लोग भाग्यवादी एवं सुविधावादी होते हैं, ऐसे लोग कुंठित तो होते ही हैं, जड़ भी होते हैं. कल्पना और प्रतीक्षा में वे अपना समय व्यर्थ गंवा देते हैं.

कोरोना को ही ले लें – हम कहां बदल पाये हैं. कारण अपनी ही सुरक्षा को लेकर डरा दिमाग ढंग से नहीं सोच पाता. हम स्वार्थी हो उठते हैं, केवल अपने बारे में ही सोचते हैं. गलतियों को गलत मानने पर भी गलतियां निरस्त नहीं हो रही हैं, यह भी एक आश्चर्य है. ‘पानी में मीन पियासी’ वाली कहावत हो गयी है. मनुष्य गलत आदतों, सोच एवं व्यवहार से आक्रान्त है, पीड़ित है. पीड़ा का दंश उसकी सुख और नींद तक छीन रहा है, किन्तु वह आग्रह नहीं छोड़ रहा है. गलतियों का परिमार्जन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इससे आप सामाजिक बने रहते हैं और लोगों के साथ जुड़े रहने पर आपको तनाव या अवसाद जैसी समस्या नहीं सताती है.

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