चेन्नै. कोरोना संकट काल में बहुत कुछ बदला है. बहुत कुछ बदलने वाला है. बहुत कुछ बदलने के कारन उसका असर होने वाला है. इसमें पुलिस की छवि पर भी बहुत गहरा दाग लगा है. सोसल मिडिया ने बहुतों की पोल खोल कर रख दी है. जिनमें से कुछ बानगी इस प्रकार है.
1) कोरोना काल में जनता से जबरदस्ती मास्क लगवाना. जबकि पश्चिम के देशों में मास्क को लेकर जनता सडकों पर उतर आई है. मास्क की होलियाँ जलाई जा रही है. अब तो भारत में भी मास्क की होलिया जलाई जा रही है. हद तो तब हो गई जब मास्क के स्थान पर कोई दूसरा कपड़ा बांधे उसे भी पुलिसिया भांगड़ा का सामना करना पड़ता है. देश का प्रधान मंत्री गमछा बांधे चलता है. दूसरा कोई नहीं बांध सकता. ऐसे – ऐसे फरमानों से ही जनता परेशान हो उठी है.
2) कोरोना काल में अति आवश्यक काम के लिए भी बाहर नहीं निकलने देना. जो दिखा उसे पुलिसिया भांगड़ा का सामना करना पड़ता है. ई-पास की प्रक्रिया को इतना जटिल बनाया है की जनता की तेल निकल जाती है. सोसल मिडिया पर इसके कई नमूने देखने को मिल जाते हैं. हद तो तब हो जाती है जब महिलाओं को भी पुलिसिया भांगड़ा के डंडे खाने पड़ते हैं. उन महिलाओं को भी जिनके गोद में बच्चे हैं.
ऐसे हजारों उदाहरण सोसल मिडिया पर देखने को मिल जायेंगे जिसमें पुलिस ने विवेकहीनता का परिचय दिया है. एक तरफ जनता सरकार के अनावश्यक फरमानों से परेशान तो दूसरी तरफ पुलिसिया भांगड़ा से. जनता जाये तो कहाँ जाये. मोदी जी के नेतृत्व वाली सरकार ने जनता के लिए बहुत सारी घोषनाएं की लेकिन किसे क्या मिला ? इस पर कब विश्लेषण होगा? आखिर पैसा तो हमें ही कर देकर चुकाना है.
इस पर जब पड़ताल किया तो पता चला की देश के केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला ने देश के सभी पुलिस उपमहानिदेशकों की ऑनलाइन बैठक बुलाई और फरमान जारी कर दिया की जो लोग कोरोना सुरक्षा के नियमों का उलंघन करें उनसे शक्ति से निपटा जाये. पुलिस उपमहानिदेशक ने अपने नीचे के अधिकारी को और उस अधिकारी ने अपने से नीचे वाले को. इस प्रकार आदेश से विवेक समाप्त हो गया और जनता को पुलिसिया भांगड़ा का शिकार होना पड़ा है.
पीछे चलें तो स्पष्ट होता है की फिरंगियों ने लूट – खसोट के लिए 1861 में जो भारतीय पुलिस अधिनियम बनाया था. आज भी उसमें कोई आधारभूत परिवर्तन नहीं किया गया है. यही कारन है की फिरंगियों के समय का पुलिसिया भांगड़ा आज भी जारी है. क्या यह लोकतांत्रिक भारत में किसी त्रासदी से कम नहीं है कि हमारी पुलिस आज भी 1861 की उस पुलिस संहिता से परिचालित है जो 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को रोकने के उद्देश्य से बनी थी।
जानकर बताते हैं की केन्द्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने इस बदलाव पर काम करना शुरू कर दिया है. इस पर उन्होंने कहा है की डेढ़ सौ साल बाद होने जा रहे बदलाव को आज और कल के भारत के भविष्य के अनुरूप निर्मित किया जाएगा. इसलिए मसौदे के प्रारूप को लोकमंच पर रखा जाएगा और समाज के आखिरी पायदान तक पुलिस जनोन्मुखी कैसे बने इसकी पुख्ता व्यवस्था की जायेगी.
आईपीसी और सीआरपीसी में आधारभूत बदलाव करने में केन्द्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह कामयाब रहते हैं तो यह उन्हें अद्वितीय गृहमंत्री के रूप में स्थापित कर देगा. राजनीतिक दलों द्वारा विकास, सुरक्षा और पुलिस दमन से मुक्ति के नाम पर चुनाव दर चुनाव सत्ता पाई गई. पुलिस के डंडे से ही अपने विरोधियों और असहमत जनवर्ग को ठिकाने लगाने का काम राजनेताओं ने किया है.
प्रश्न है की पुलिस देश भक्ति जनसेवा का दावा करती है लेकिन दिखता कुछ और है. समाज, राजनीति, यातायात, कला, संस्कृति, व्यापार, वाणिज्य हर क्षेत्र में हमें पुलिस की जरूरत होती है, पुलिस दिन-रात खड़ी भी रहती है. सर्वाधिक समय अपनी ड्यूटी पर देती है. इसके बाद भी पुलिस की लोकछवि में एक डरावना क्यों हावी है ? क्यों कोई भी भारतीय थानों में उन्मुक्त भाव के साथ जाने की हिम्मत नहीं कर पाता है? क्योंकि पुलिस एक्ट 1861 अंग्रेजी सरकार ने इसलिए बनाया था क्योंकि 1857 के पहले स्वतंत्र आन्दोलन से ब्रिटिश बुरी तरह डर गए थे और उन्हें भारत की जनता को डंडे मार – मार कर बदला लेना था.
इसकी कुछ बानगियाँ – अगर हम पांच लोग किसी चौराहे पर खड़े होकर सरकार के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो पुलिस हमको शांतिभंग करने के आरोप में धारा 151 में बन्द कर देती है और आपकी जमानत एसडीएम को लेनी होगी. जबकि हम किसी को थप्पड़ मार दें, उसे गालियां दें, उसे हल्की चोट पहुंचा दें, हमें धारा 323 506 बी के तहत पकड़ा जाएगा और थानेदार ही हमें जमानत पर छोड़ देगा.
फिरंगियों के द्वारा बनाये गए ऐसे काले कानूनों के कारन ही आज पुलिसिया भांगड़ा की स्थिति है. केन्द्रीय गृह मंत्री श्री अमित शाह ने इसे बदलने का बीड़ा उठाया है तो यह सराहनीय क़दम है. लेकिन इसमें कहीं देर न हो जाये. हमने 1977 को देखा है. भारत की जनता ऐसे मामलों में बहुत संवेदित है और अफसरशाही सरकार गिराने का बीड़ा उठा लेते हैं.
- साभार, पल्लव टाइम्स