गौमाता से कुपोषण स्वाहा
वर्ष 2019 में किये गए एक सर्वे के अनुसार “राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण” ने एक सच से पर्दा उठा दिया है. भारत में 6 माह से लेकर 2 वर्ष के बच्चों में केवल 6.4 % प्रतिशत बच्चों को ही वह न्यूनतम स्वीकार्य पोषण मिल पाता है, जो की विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय किया गया है.
इसमें सबसे आश्चर्य चकित करने वाला यह है की संपन्न और शिक्षित परिवार भी बच्चों के पोषण को लेकर सजग नहीं है. इस सर्वे में उससे भी अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि आर्थिक, शैक्षिक और विकास के पैमानों पर संपन्न राज्यों की स्थिति ज्यादा खराब है. इसका मतलब है कि पोषण को लेकर जागरूकता का अभाव है.
इस सर्वे के अनुसार तमिलनाडु में 4.2 प्रतिशत बच्चों की ही प्रयाप्त पोषक भोजन मिल पता है जबकि पडोसी आंध्र प्रदेश में मात्र 1.3 प्रतिशत शिशु उपयुक्त पोषण पाते हैं. वहीँ महाराष्ट्र में सिर्फ 2.2, गुजरात, तेलंगाना और कर्नाटक में मात्र 3.8 है.
सबसे बेहतर सिक्किम है जहां 35.2 प्रतिशत शिशु समुचित पोषण पते हैं. केरल 32.6 है. इसलिए इसे केवल गरीबी से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. पढ़े – लिखे लोग भी नहीं जानते कि उनके शिशु को किस प्रकार के पोषण की जरूरत है और उसे कब क्या देना चाहिए. वे बाजार के झूठे विज्ञापनों से प्रभावित होते हैं और बच्चों को पोषण की जिम्मेदारी बाजार पर छोड़ देते हैं. जबकि बाजार केवल मुनाफे के लिए है.
देश का भविष्य पोषण पर निर्भर करता है. बच्चों को अपने जीवन के शुरुआती समय में सही पोषण नहीं मिलेगा, तो भविष्य में उनका शारीरिक और मानसिक विकास प्रभावित होगा. इससे उनकी कार्य – क्षमता प्रभावित होगी. उनकी उत्पादकता कम होगी जिसका असर राष्ट्रीय उत्पादकता पर पड़ेगा. किसी देश के नागरिकों की बौद्धिक – शारीरिक क्षमता कम होने के कारण वहां के सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट आती है, इसलिए खाद्य कार्यक्रम को केवल गरीबों तक भोजन पहुंचाने तक सीमित नहीं मान लेना चाहिए.
आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग का हर आठवां बच्चा स्थूल पाया गया और हर दसवें बच्चे में मधुमेह – पूर्व के लक्षण मिले. यानी डायबिटीज होने का खतरा है. रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश का हर तीसरा बच्चा बौना है. इसी तरह लगभग हर तीसरा बच्चा उम्र के अनुसार कम वजन का है, जबकि हर छठा बच्चा दुबले शरीर का यानी लंबाई के हिसाब से कम वजन का होता है. इसमें स्थिति में बहुत धीमी गति से सुधार है.
इंग्लैंड और अमेरिका में दक्षिण एशियाई प्रवासियों के बच्चे काले बच्चों की तुलना में छोटे होते हैं. जबकि पश्चिमी देशों में दो पीढ़ियों के निवास के बाद और अन्य समुदायों के साथ वैवाहिक संपर्कों के बगैर भी दक्षिण एशियाई लोगों के नाती – पोते उसी कद के हो जाते हैं जैसे दूसरे समुदायों के बच्चे. यह सिद्ध करता है की यहाँ भी मामला जेनेटिक्स का नहीं, कुपोषण का हो सकता है.
आज पोषकता के नाम पर जितने भी पौडर, सिरप और हलवा मिल रहे हैं उनमें से लगभग सभी बेकार के हैं. कहीं च्यवनप्राश के नाम पर शक्करकंद का हलवा है तो कहीं बोर्नबीटा-हार्लिक्स जैसे न्युत्रिसन पैक में मूंगफली की खल्ली है. कहीं शहद के नाम पर ग्लूकोज है तो कहीं घी के नाम पर बटरआइल है. पूरा बाज़ार सस्ता बेचने के चक्कर में क्वालिटी को खो दिया है.
भारत सरकार चाहती है कि 2022 तक कुपोषण से बच्चों को पूरी तरह छुटकारा दिलाया जाए, पर ऐसा होता दिखाई नहीं देता. इसमें जहाँ गरीबी को मात देना है वहीँ चेतना भी लानी होगी. खान – पान के सम्बन्ध में एक जाग्रति तैयार करना होगा. आखिर यह सब कैसे होगा?
इसके लिए भारत की सरकार को महर्षि वाग्भट्ट के अष्टांग हृदयं और संग्रहम की ओर देखना चाहिए. जहाँ अष्टांग हृदयं के प्रथम दिनचर्या अध्याय में जीने की अद्भूत कला पर 46 सूत्र है. जिसे माध्यमिक शिक्षा में जोड़ने की जरुरत है. वहीँ अष्टांग संग्रहम में अद्भूत रसोईघर की तकनीक महर्षि ने दी है. मात्र इतना काम कर लेने से भारत से कुपोषकता दूर हो सकती है.
इस विषय पर पूर्व प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह भी खूब रोना रोये थे और रोते हुए अमरीका से ऐसा दूध का पौडर बच्चों के लिए मंगवाया जिसे वहां के सूअर को भी नहीं खिलाया जाता था. इस पर उनकी बड़ी थुक्कत – फजीहत हुई थी. तब तक करोड़ों बच्चों के पेट में आंगनवाडी केन्द्रों के सहयोग से जा चूका था. कहीं इस बार भी ऐसा ही न हो जाये.
इस पर मैंने एक पत्र पूर्व प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह को लिखा था की “यदि आप भारत के बच्चों के साथ सच में सहानुभूति रखते हैं तो कुछ ऐसा करें की भारत के सभी बच्चों को देसी गोमाता का दूध मिल सके. इससे भारत के बच्चों से कुपोषकता 100% चली जाएगी. जिसकी गारंटी मैंने ली थी और लिखा था की इससे 100% पोषकता दूर नहीं हुई तो मैं जीवन भर भैंस चराऊंगा. यदि हो गया तो आप जीवन भर भैंस चराना”.
- साभार पल्लव टाइम्स
धन्यवाद.
सही मार्गदर्शन.