चीनी गिरफ्त में भारत ; कौन है जयचंद

चेन्नै . जैसी भूमिका वामपंथियों की रही है उसके आधार पर कहा जा सकता है की उनकी सोंच कभी भी भारत की प्रकृति के अनुरूप नहीं रही. हाँ ; नास्तिकता के आधार पर उनकी सोंच खरी उतर सकती है. लेकिन क्या हम भारत के लोग और हमारी प्रकृति नास्तिक है ?

इसकी कुछ बानगियाँ आज – कल सोशल मिडिया में प्रकाशित हो रही है. ऐसी ही एक सच्चाई मोदी नगर (उत्तर प्रदेश) की है.

वर्ष 1945 में बेगमाबाद का नाम बदल कर मोदीनगर किया गया था. भारत भर से लोग अपनी रोजी – रोटी की खोज में मोदीनगर की मोदी मिल्स में नौकरी करने आते थे. उद्योगपति श्री गुर्जरमल मोदी का वह साम्राज्य था. मोदी टायर, मोदी कपड़ा मिल, मोदी वनस्पति, मोदी चीनी मिल और फिर मोदी हॉस्पिटल, मोदी धर्मशाला,  मोदी कॉलेज आदि. सब कुछ मोदी के नाम से  मोदी ये… मोदी वो…. सब कुछ सरलता से, सहजता से चल रहा था.

एक दिन लाल झंडे वाले वहां आए, वैसे ही जैसे पंजाब के किसानों के साथ आजकल नज़र आते हैं. उन्होंने मजदूरों को समझाया कि कैसे वर्ग संघर्ष में मिल मालिक, मजदूरों का शोषण करता है, तो चाहे मोदी उन्हें मंदिर, कॉलेज, अस्पताल, घर, विवाह के लिए भवन, यहां तक की घर की पुताई के पैसे तक दे रहा हो, लेकिन असल में वो उनका शोषण कर रहा है. फिर शुरू हुई क्रांति. लोग बताते हैं की एक बार जब मोदी साहब की पत्नी मंदिर गईं, तो मजदूर नेताओं ने कपड़े उतारकर उनके सामने नग्न – प्रदर्शन किया.

उस दिन के बाद से मोदी नगर अपनी पहचान खोने लगा. चीनी मिल को छोड़ कर एक – एक करके सारी मोदी इंडस्ट्री वहां से उठा ली गई. चीनी मिल आज भी बची हुई है क्योंकि किसानों ने लाल झंडे वालों को कभी क्रांति करने ही नहीं दी. जिस मोदीनगर में देश के कोने कोने से लोग नौकरी करने आते थे, आज उसी मोदीनगर के लोग बस – रेल में भेड़ बकरियों की तरह भर कर साधारण सी नौकरियां करने दिल्ली – नोएडा – गाजियाबाद जाते हैं.

80 के दशक में खलिस्तान आंदोलन चलने के पहले पंजाब देश का सबसे समृद्ध राज्य था. खालिस्तान आंदोलन के बाद बहुत इंडस्ट्रीज पंजाब के बाहर शिफ्ट हो गई. जो बची हुई है वो अब किसान आन्दोलन से शिफ्ट हो रही है.

1982 मे मुंबई में दत्ता सामंत की युनियन ने मिलों में हड़ताल करवाई, जो 2 साल चली और सारी मिलें बंद हो गई. लाखों मजदूर और उनके परिवार बर्बाद हो गये.

पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में लगने वाली टाटा नैनो की फैक्ट्री जिसमें वहां के पन्द्रह हज़ार लोगों को प्रत्यक्ष नौकरी मिलनी थी, उसे भी ममता बनर्जी के संगठित भीड़ तंत्र ने फर्जी आंदोलन द्वारा बंगाल से गुजरात शिफ्ट होने के लिए मजबूर कर दिया. ऐसा ही चेन्नै के बिन्नी मिल के साथ भी घटित हुआ. आज भी हजारों परिवार सड़क छाप हो कर रह गए. ये एक ऐसी विचारधारा है, जिसमें विश्वविद्यालय का कुलपति, मिल मालिक, कॉरपोरेट और देश का प्रधानमंत्री अपना दुश्मन दिखाई देता है.

कानपुर – कॉटन, पटसन (जुट), रेशम, उन, चमड़ा और मशीनों के कल पूर्जों का उत्पादन करने वाला शहर था. जिसको कभी मानचेस्टर ऑफ़ ईस्ट कहा जाता था. बड़े बड़े उद्योग, देश – विदेश से कच्चा माल लाकर उत्पादन करने वाली बड़ी – बड़ी औद्योगिक इकाइयां थी. आई. आई. टी. जैसे बड़े शैक्षणिक संस्थान से निकले इंजिनियर इन उद्योगों की शोभा बढाते थे. यहां का बना माल विश्व विख्यात था. पूरे विश्व में निर्यात था.

लाखों की संख्या में दूर – दूर से रोजी – रोटी के लिए मजदूर, कुशल और अकुशल कारीगर आते थे. मुंबई और चेन्नै जैसे शहर भी उत्पादन में पीछे रहते थे. यहां दक्षिण भारत से लोग काम करने आते थे. 80 के दशक में कानपुर को लाल सलाम की नज़र लग गई. वामपंथियों और कांग्रेसियों की राजनीती ने कानपुर को भी बर्बाद कर दिया. मजदूर एकता और मजदूर की भलाई के नाम पर बर्बादी का भेंट चढ़ गया. एक दिन अचानक 1981 में कानपुर बंद हो गया. एक साथ 27 मिलें, धीरे धीर और भी इकाइयां अगले 2 माह में बंद हो गई. 1984 में सत्ता परिवर्तन हुआ. वामपंथी से कांग्रेसी आ गए. उन्होंने भी वही किया जो वामपंथी कर चुके थे.

ये तो कुछ बानगियाँ है. ऐसे ही भारत के सभी छोटे बड़े उद्योग आधारित शहरों को बर्बाद किया गया. कोलकाता इसका सबसे बड़ा उदहारण है. एक चीन से राजनैतिक चंदा लेता है और दूसरा तो अपना पेट ही चीन से भरता है. उसका माई – बाप भी चीन है. ऐसे में इन दोनों को जयचंद के भेस में देखना कोई अतिश्योक्ति नहीं होना चाहिए.

  • साभार, पल्लव टाइम्स

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