भाषा और बोलियों को संजोये

चेन्नै. भारत के सन्दर्भ में एक कहावत है “बीस कोस कर पानी और चालीस कोस पर बोली” बदलने वाला देश भारत है. (कोस का अर्थ है – 2.5 कोस बराबर 8 किलोमीटर) इसे चरितार्थ करता भारत ; जहाँ साढ़े तीन सौ से कुछ अधिक बोलियाँ थी. दो दर्जन से अधिक लिपियाँ थी. अभी भी 14 लिपियाँ हमारे संविधान में अंकित है. ये सभी भारत देश की राष्ट्र भाषाएँ है. इसमें से हिंदी को एक विशेष स्थान है – “राजभाषा” होने का. लेकिन राजभाषा से जुड़े अधिकारियों और सरकार की निष्क्रियता के कारण हिंदी के नाम पर 72 वर्षों से चलती आ रही लूट ने न तो हिंदी को सम्मान दिलाया ना ही उसे असली में राजभाषा का स्थान मिला. कुल मिलाकर अंगरेजी का वर्चस्व बना रहा. इसमें सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है भारत की बोलियों का और भारत के सभी राष्ट्र भाषाओँ का. इस विषय को जो भी उठता है उसे उसका मूह बंद कर दिया जाता है.

अभी वर्तमान में एक ऐसा ही प्रसंग उठाया है – तेलंगना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भारत सरकार‚ उसके विभागों और उपक्रमों में बहाली के लिए संघ लोक सेवा आयोग‚ रेलवे भर्ती बोर्ड‚ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक‚ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और कर्मचारी चयन आयोग द्वारा ली जाने वाली परीक्षाएं क्षेत्रीय भाषाओं में आयोजित करने का अनुरोध किया है. फिलहाल स्थिति यह है कि इन आयोगों और विभिन्न एजेंसियों द्वारा हिंदी और अंग्रेजी में ही परीक्षाएं ली जाती हैं. अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई नहीं करने वाले या हिंदीभाषी क्षेत्र से नहीं आने वाले छात्र इन प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल रहने से वंचित रह जाते हैं. उनके अनुसार सभी राज्यों के छात्रों को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए सभी प्रतियोगी परीक्षाएं क्षेत्रीय भाषाओं में कराई जानी चाहिए. तभी क्षेत्रीय भाषाओं का महत्व और सम्मान बचा रहेगा. नहीं तो बोलियों की तरह वे भी लुप्त हो जायेंगे.

भाषाशास्त्री डेविड क्रिस्टल ने अपनी किताब ‘लैंग्वेज डेथ’ में लिखा है कि भाषा की मृत्यु और मनुष्य की मृत्यु एक – सी घटना है‚ क्योंकि दोनों का वजूद एक दूसरे के बिना संभव नहीं है.

उधर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय द्वारा हाल में लिये गये एक निर्णय के अनुसार – आईआईटी और एनआईटी संस्थानों में आगामी सत्र से ही छात्रों को हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने का मौका मिलेगा. इस फैसले का उद्देश्य छात्रों को उसी भाषा में उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने का अवसर दिलाना है‚ जिसमें उन्होंने स्कूली पढ़ाई की है.

अंग्रेजों की गुलामी से मिली आजादी के बाद भी कभी वह स्थिति बनी ही नहीं कि हिंदी उच्च तकनीकी शिक्षा का और आगे चलकर रोजगार का माध्यम बनती. उल्टे मुसीबत यह हुई कि राज्य शिक्षा बोर्ड़ों में हिंदी माध्यम चुनने वाले छात्र जब डिग्री या पेशेवर पाठक्रमों में दाखिला लेने पहुंचते तो सारी पढ़ाई में अंग्रेजी पाकर उनकी आधी से ज्यादा ऊर्जा पराई भाषा से जूझने में ही खर्च हो जाती है. आज भी तमाम प्रतिष्ठान अगर यह शिकायत करते मिलते हैं कि उन्हें डिग्रीधारी नौजवान तो मिलते हैं‚ लेकिन कौशल में बेहद पिछड़े होते हैं‚ तो इसकी वजह अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा है जिससे जुड़े मर्ज पर अब नजर गई है.

यहाँ पर भी एक मुश्किल यह है कि जैसे ही उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षा में हिंदी या क्षेत्रीय भाषा की पहल की जाती है‚ अंग्रेजी के पैरोकार उसके अंधविरोध पर उतारू हो जाते हैं. उनका कुतर्क होता है‚ विज्ञान – इंजीनियरिंग – चिकित्सा की शिक्षा हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षक कहां से आएंगे? किताबें रातोंरात कैसे अनूदित होंगी‚ संदर्भ कोष इन भाषाओं में कैसे आएंगे? अंग्रेजी को छोड़ा गया तो शिक्षण संस्थानों की विश्व रैंकिंग का क्या होगा? यानी इससे उच्च‚ पेशेवर शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं का पूरा फोकस ही बिगड़ जाएगा.

समस्या की जड़ यही है कि देश को आजादी के 72 सालों में भारत बनाम इंडिया या हिंदी – क्षेत्रीय भाषा बनाम अंग्रेजी में बांटा गया है और इसकी मानसिकता दिनोंदिन बढ़ती ही जाती रही है. इसे समझने के लिए जापान जैसे देशों के विकास को देखनी होगी. इसी प्रसंग में के. चंद्रशेखर राव के आग्रह को समझना होगा कि क्यों प्रतियोगी परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं के विकल्प की मांग कर रहे हैं.

जापान जैसे देशों के लिए अंग्रेजी कारोबारी भाषा है और उसका प्रयोग उसी नजरिए से होता है‚ उसे पूरे जीवन का हिस्सा नहीं बनाया जाता. अंग्रेजी ही देश के चौतरफा विकास का मानक होती तो भारत को चीन‚ जापान‚ द. कोरिया से मीलों आगे होना चाहिए था. उल्लेखनीय है कि दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बीस में से छह भाषाएं हमारे देश में हैं. ये हैं हिंदी‚ बांग्ला‚ तेलुगू‚ मराठी‚ तमिल और पंजाबी. लेकिन हमें विकास अंग्रेजी के सहारे ही होते दिखाई देता है.

  • साभार, पल्लव टाइम्स

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