चेन्नै। मजदूरों पर हो रहे राजनीति इस प्रकार सर चढ़ कर बोल रहा ही की शीर्ष के नेता अपना आपा खो बैठे हैं। पप्पू की तो बात ही मत पूछें ? दूसरे भी कम नहीं हैं। राजनीति में सभी शेर पर सवा शेर हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी मजदूरों पर सुनवाई करते हुए कहा है की पैदल चल रहे मजदूरों को जल्द आश्रय स्थल पर ले जाएं और उन्हें सारी सुविधाएं दें। इसी संदर्भ में कहा कि प्रवासी मजदूरों को घर भेजने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। बिहार और उत्तर प्रदेश से बड़ी संख्या में मजदूर महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात जाते हैं।

विशेष कर महाराष्ट्र के नेताओं को यह सहन नहीं होती है। और अब तो दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल भी इसी रह पर हैं। महाराष्ट्र में ठाकरे पुत्तरों को तो इसमें राजनीति के सिवा कुछ आता ही नहीं। जो जितना ज्यादा बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूरों को खर्री – खोटी सुनाएगा उसे लगता है की उन्हें उतना ही ज्यादा “मराठी मानुष” का समर्थन मिलेगा। उन्हें यह भी लगता है की कभी भी बिहार और उत्तर प्रदेश के मजदूर उन्हें वोट नहीं देंगे। इसीलिए उनका एक पुत्तर खुलेआम सड़कों पर जैसे डांडा ले कर खड़ा रहता है तो दूसरा अपने ही पिता के आदर्शों को जैसे काँग्रेस के यहाँ गिरवी रख दी है। ठाकरे बंधुओं – उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे में यही प्रतिस्पर्धा है। कौन कितना यूपी – बिहार को गली दे सकता है?

इस बार पहली बार ऐसा हुआ है की दिल्ली के श्रमिकों के साथ वहाँ के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ठाकरे बंधुओं से भी बूरा व्यवहार किया है। विशेषज्ञों की मानें तो दिल्ली के रोहिङ्ग्या मुसलमानों को दिल्ली में स्थायी रूप से बसाने के लिए ही येन – क्रेन – प्रकरेन यूपी – बिहार के श्रमिकों को भगाया है। यूपी – बिहार के श्रमिक तो केवल चावल – नमक खा कर भी गुजारा करने वाले है। उन्हें इस प्रकार भागने की जरूरत क्या पड़ी ?

जनगणना 2011 के अनुसार लगभग 6 करोड़ 49 लाख प्रवासी श्रमिक थे। इनमें करीब 3 करोड़ 76 लाख श्रमिक शहरी क्षेत्रों में थे और करीब 2 करोड़ 70 लाख श्रमिक ग्रामीण क्षेत्रों में। शहरी क्षेत्रों में श्रमिक अधिक है इसके कुछ विशेष कारण हैं। दिल्ली, मुंबई आदि शहरों में कोई एक व्यक्ति छोले भटूरे या पानी पूड़ी का ठेला लगाकर भी इतना कमा सकता है, जितना उसका पूरा परिवार बिहार या यूपी में मनरेगा से नहीं कमा पाता। इसीलिए लोग नोएडा, पुणे जैसे शहरों में प्रवाशी बनते हैं।

विगत दो माह पहले कोरोना महामारी ने स्थितियों को सिरे से बदल कर रख दिया है। आर्थिक गतिविधियां ठप होने के कारण श्रमिकों को अपने गावों की ओर साधन नहीं मिलने से पैदल ही जाना पड़ा है। कुछ प्रवासी मजदूर जो वापस लौटे हैं, अपने घर – गांव, वे शायद कभी वापस न जाएं, मनरेगा या दूसरी किसी आर्थिक गतिविधि में संलग्न हो जाएं। ऐसा भी हो सकता है की कुछ प्रवासी मजदूरों को फिर मुंबई, दिल्ली की याद आने लगे।

इससे हट कर हमें प्रवासी मजदूरों की स्थिति ने एक संदेश तो दे ही दिया है कि जहां वे वर्षों से काम करते हैं, वहाँ के लोग उनके प्रति असंवेनदशील ही रहते हैं। काम लिया और छोड़ दिया की स्थिति होती है। जैसे गाय जब तक दूध देती है, खिलाया जाता है और जब दूध देना बंद करती है तो उसे सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। जो लोग उनसे काम लेते हैं वे भी उनके हितों के प्रति उदासीन हो सकते हैं और वहां के नेता उन्हें भगाकर राजनीतिक लाभ लेने से बिलकुल नहीं कतराते हैं।

मुंबई में बिहार और यूपी के मजदूरों की चिंता उद्धव ठाकरे का विषय नहीं है क्योंकि वह उनका वोट बैंक नहीं है। इसलिए भारत को अब सभी राज्यों और केंद्र सरकार को एक साथ प्रवासी श्रमिकों से जुड़ी नीतियों पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड फिर श्रमिकों के लिए नीतियाँ अलग – अलग क्यों ?

इस दिशा में उत्तर प्रदेश में श्री योगी आदित्यनाथ वाली सरकार ने बहुत गति से काम करते हुए कुछ ऐसे कदम उठाएं हैं, जो सभी राज्यों के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं, जहां – जहां से मजदूर प्रवास पर जाते हैं, जैसे बिहार, झारखंड और मध्यप्रदेश ; वहाँ की सरकारों के लिए यह निर्णय अनुकरणीय है।

उत्तर प्रदेश सरकार अपने प्रवाशी 28 लाख श्रमिकों में से 18 लाख श्रमिकों की कौशलता का निर्धारण कर चुकी है। साथ ही उत्तर प्रदेश सरकार सभी उद्योग प्रतिनिधि संगठनों के साथ सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर कर चुकी है कि इनमें से 11 लाख श्रमिकों को रोजगार उनके द्वारा दिया जाएगा। अगर प्रवासी श्रमिकों को उत्तर प्रदेश में इस तरह से समायोजित कर लिया गया, तो उत्तर प्रदेश की राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों में महत्वपूर्ण बदलाव आयेगा। यदि यही कार्य बिहार, ओड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश की सरकारों ने कर लिए तो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और मुंबई में ठाकरे पुत्तर अपने आर्थिक पहियों की मरम्मत भी नहीं कर पाएंगे।

आज भारत में जितना सिविल विकाश दिखलाई दे रहा है वह सारा उत्तर प्रदेश, बिहार, ओड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश के श्रमिकों के कारण है। जीतने भी उद्योग चल रहे हैं वे सभी इन्हीं राज्यों के श्रमिकों के कारण हैं। वहाँ के स्थानीय लोग तो आलसी और निक्कमें हो गए हैं। इसी कारण से उत्तर प्रदेश, बिहार, ओड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश के श्रमिक उद्योग पतियों के लिए पहली पसंद बन गए हैं। लेकिन अब कोरोना महामारी के कारण परिदृश्य बदलेगा।

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