चीन और पाकिस्तान से हमारा सीमा विवाद कोई नया विषय नहीं है। इन दोनों देशों के सीमावर्ती भागों से कुछ न कुछ तनाव होते ही रहता है। इसके अलावा एक और देश भी है जिससे हमारी सीमाएं साझा होती हैं और वह देश है नेपाल। कल तक हिमालय की तराईयों में बसा यह एक छोटा सा देश जो भारत के अलावा दुनिया का एकमात्र हिन्दू देश था। यह देश और इसके वासी गोरखा अपनी बहादुरी और ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं। इसलिए यह कभी भी किसी का उपनिवेश नहीं रहा।

अब नेपाल के प्रतिनिधि सभा में उस देश के नक्शे को बदलने के लिए संशोधन बिल को पूर्ण बहुमत से पारित कर दिया गया। पाकिस्तान और चीन के बाद पहली बार किसी पड़ोसी देश ने भारतीय क्षेत्र पर दावा किया है। उनके लिए कोविद-19 कोई महत्वपूर्ण कारण नहीं है। दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ है कि भारत – नेपाल सीमा क्षेत्रों में भूमि स्वामित्व से संबंधित सभी विवादास्पद मुद्दों को चर्चा के माध्यम से हल किया जाएगा।

इस विषय पर नेपाल के मुद्दे को भारत संयम से ही निपटाए तो अच्छा है। भारत के चारों ओर विभिन्न प्रकार के पाकिस्तानबनाने का चीन की सोच कोई नहीं नहीं है। इसलिए उस देश पर चीन का प्रभाव सर्वविदित है। वास्तव में भारत और नेपाल के बीच 1,800 किलोमीटर लंबी सीमा का केवल दो प्रतिशत भाग विवादित है। भौगोलिक दृष्टि से नेपाल एक घिरा हुआ देश है जिसकी तीन ओर सीमाएं भारत के साथ और एक तिब्बत के साथ साझा होती हैं। कालापानी विवाद बहुत पुराना है। कालापानी एक ऐसा क्षेत्र है जहां भारत, चीन और नेपाल तीनों देशों की सीमाएं मिलती है।

स्पष्टता की कमी के कारण यह विवादास्पद हिस्सों में से एक है। 1923 में ब्रिटिश और नेपाली राजाओं के बीच संधि हुए थे। फिर सब कुछ शांत था। नेपाल के कुछ मुद्दे थे, जिसे अभी भी उठाया जा रहा है। चीन ने कभी भी लिपुलेख के भारत के स्वामित्व पर आपत्ति नहीं जताई लेकिन नेपाल के अनुसार यह क्षेत्र केवल विवादित नहीं है, बल्कि उसका है। हिमालय से आगे का बीहड़ इलाका अपनी नदियों और नालों के साथ सीमांकन में है। जहां भारत, पाकिस्तान, चीन और अब नेपाल के साथ विवाद में सभी उलझ गए हैं।

भारत द्वारा 8 मई को धारचूला – लिपुलेख सड़क का उद्घाटन करने के बाद नेपाल नाराज था जिसके पीछे की सच्चाई और कुछ है। यह सड़क कैलाश मानसरोवर की यात्रा को सरल और दूरी को कम कर देगी। इसके अलावा अन्य उपलब्ध मार्गों की तुलना में यह मार्ग भारतीय सीमा के 80 फीसदी से होकर गुजरता है। उसका काम कई महीनों से चल रहा था पर उस समय नेपाल को कोई नाराजगी नहीं थी। 80 किमी लंबी यह सड़क उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले से शुरू होती है और सीधे लिपुलेख घाट तक जाती है। लिपुलेख दर्रे के माध्यम से शेष यात्रा तिब्बत की सीमाओं और निश्चित रूप से चीन से होनी है।

यह 17,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। जो अब दिल्ली से दो दिन में लिपुलेख पहुंचना संभव होगा। कैलाश दर्शन के लिए केवल दो मार्ग हैं, 1) नाथू ला-ला पास सिक्किम के माध्यम से और 2) नेपाल के माध्यम से। इसीलिए नेपाल द्वारा लिपुलेख पर लिया गया आक्रामक रुख, चौंकाने वाला है किंतु उनके पीछे बहुत से कारण हैं।

नेपाल के इस रुख का कारण – भारत द्वारा अघोषित आर्थिक नाकाबंदी लगा देने के कारण वहाँ आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में उच्छाल आया। इस कारण से सरकार और लोगों के बीच हमारे प्रति बढ़ते रोष को देखकर चीन ने वहाँ पांव पसारने शुरू कर दिए। आज चीन ने नेपाल में अरबों डॉलर का निवेश किया है।

बड़े – बड़े माल, अस्पताल, सड़क से लेकर रेलवे तक प्रत्येक क्षेत्र में यहां चीन हावी है वहाँ कई स्कूलों में चीनी भाषा की शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया गया है। इतना कुछ हो जाने के बाद भारत का रुख नरम तो हो गया लेकिन तब तक चीन हावी हो चुका था।

नेपाल में नेपाली रुपयों से ज्यादा भारतीय मुद्रा प्रचलन में है और उसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। भारत में नोटबंदी और फिर नेपाल से 500 और 1000 के नोटों को न बदलने के फैसले ने नेपाल की आर्थिक रीढ़ को कमजोर कर दिया। इसी समय चीन से मिली मदद के भरोसे पर आज नेपाल हमसे आंख तरेरकर बात कर रहा है। परिणाम आज नेपाल में 100 रुपये से बड़ी भारतीय मुद्रा स्वीकार नहीं की जाती।

इसके बाद प्रधान मंत्री मोदी ने नेपाल का दौरा किया, पशुपतिनाथ के दर्शन भी किये, किन्तु नेपाल को जैसी आशा भारत से थी पूर्ति नहीं होने के कारण दूरियाँ बनी रही। अब देखें – भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक समानताओं के बावजूद भारत का नेपाल में वित्तीय निवेश बहुत कम है।

एक समय तक हिन्दू राष्ट्र होने के कारण नेपाल हमारे लिए गर्व का विषय हुआ करता था किन्तु हाल की घटनाओं ने साबित कर दिया कि धर्म से ज्यादा दो देशों के बीच के संबंधों में प्रत्येक देश के आर्थिक हित-संबंध सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। हमें इन तथ्यों पर विचार कर तुरंत उचित कदम उठाने होंगे।

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