कोरोना ने कितनों की पोल खोल कर रख दी है। बीमारियों के मूल को समझने के लिए रास्ता खोल दिया। 20 मार्च के बाद से ही देश में बंदी है। छुटभैये अस्पतालों की भी बंदी है। ऐसे में लोगों ने अपनी छोटी – मोटी चिकित्सा स्वयं कर ली है अथवा रसोईघर के बचे – खुचे, दस – बारह मसालों से ही बीमारी को ठीक कर लिया है। सोसल मीडिया में यह भी प्रसारित है की 95 प्रतिशत प्रसव ‘बंदी के बाद’ से (नैसर्गिक प्रसव) नॉर्मल हो रहे हैं। अस्पतालों की दूकानदारी बंद है। ड्रग्स की बिक्री धड़ाम से नीचे गिर गया है।

आज भारत में 27 प्रतिशत लोगों को क्षय रोग (ट्यूबरक्लोशिश) है। चीन में भारत से ज्यादा प्रदूषण होने पर भी 9 प्रतिशत है। इन्डोनेशिया में 8 प्रतिशत, फिलीपींस और पाकिस्तान में 6 प्रतिशत, नाइजेरिय और बांगलादेश में 4 प्रतिशत और साउथ अफ्रीका में मात्र 3 प्रतिशत। भारत में 219 लोग प्रतिदिन क्षय रोग से मर रहे हैं। यह सरकारी आंकडा भारत के केवल शहरी क्षेत्र का हैं। वास्तविक आंकड़ा 350 से पार जा सकता है।

यहीं पर भारत में हृदयरोग से मरने वालों की संख्या क्षय रोग से कहीं अधिक है। 7,600 लोग प्रतिदिन मर रहे हैं। जिसमें गलत आहार – विहार, वायु प्रदूषण, रिफ़ाइन आयल और बटर घी और ध्रूम्र (स्मोकिंग) को कारण बताया गया है। कैंसर से मरने वालों के आंकड़े भी हृदयघात से कम नहीं है। इसी प्रकार देखें तो एक – एक बीमारी से मरने वालों के आंकड़े भयावह है। हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

जिन – जिन बीमारियों से इतनी अधिक मृत्यु है, उन बीमारियों की चिकित्सा भारतीय रसोईघर में है। आयुर्वेद और सिद्धा में तो पहले से ही है। आयुर्वेद से निकली हुई कुछ विशुद्ध थेरेपियां जैसे होमिओपैथी, पंचगव्य आदि के पास भी इन बीमारियों से लड़ने की अत्यधिक शक्ति है। इसे समय – समय पर भारत के पारंपरिक वैद्य सिद्ध करते आए हैं। इनकी प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए ही भारत में ‘आयुष मंत्रालय’ बना। आयुष मंत्रालय ने भारत में बहूतेरे विश्वविद्यालयों को इन औषधियों की प्रामाणिकता पर मूहर लगाने की अनुमति भी दी है। लेकिन बात वहीं अटकती है की जिस आधुनिक विज्ञान के पास आयुर्वेद को समझने की क्षमता नहीं है, वह क्या खाक आयुर्वेद की औषधियों की प्रामाणिकता दे पाएगा? ले दे कर आयुर्वेद की औषधियों को अलोपथी के प्रयोगशाला में इस प्रकार लटका दिया जाता है, जैसे उस औषधि का निर्माण किसी संक्रमित वैद्य / सिद्धर ने की है।

कोरोना के समय में भी यही हुआ। आयुष मंत्रालय ने फरवरी से ही कोरोना से बचने की औषध के नमूने भारत के विभिन्न क्षेत्रों से मँगवाने शुरू किए। एक जानकारी के अनुसार सबसे ज्यादा नमूने पंचगव्य से भेजे गए। साथ में आयुष ने शास्त्रीय समीकरण भी मंगाये। स्वयंसेवी गौशालाओं के द्वारा, सिद्ध चिकित्सा के विज्ञानियों के द्वारा और आयुर्वेद के जानकारों के द्वारा, सभी कुछ उपलब्ध कराया गया। सभी को आयुष मंत्रालय का पावती मात्र मिल गया। जबकि इस विषय पर कार्य करना उनका काम है जो दशकों से 1.5 से 2 लाख प्रतिमाह का वेतन आयुष मंत्रालय और आयुष के लैब में बैठ कर डकार रहे हैं। प्रश्न यही उठता है की उन नमूनों पर आज तक कोई कार्य क्यों नहीं हुआ? नमूने यदि असफल हुए तो उसकी रिपोर्ट भी आयुष मंत्रालय ने जारी क्यों नहीं किए? प्रश्न पूछा जाना चाहिए की क्या कोरोना महामारी के समाप्त होने के बाद आयुर्वेद की औषधियों की रिपोर्ट जारी करोगे ?

आज भी भारत में पारंपरिक वैद्यों की कोई कमी नहीं है। केरल में वैद्य महासभा है। तमिलनाडू में पारंपरिक वैद्य संगम है। कर्नाटक, तेलंगना और आंध्रप्रदेश में भी इनके संगठन है। जिनके कार्यों की सराहना पर वांगमय लिखी जा सकती है। कुछ उदाहरण जो सोसल मीडिया में वायरल हुई 1) तमिलनाडू में एक पारंपरिक सिद्धर ने 10 कोरोना पॉज़िटिव रोगी पर कार्य किया। सभी के सभी 3 दिनों में निगेटिव हो गए। सरकार ने उसे कठघरे में यह कह कर खड़ा कर दिया की इस पर कोई शास्त्रीय डॉकयुमेंट क्यों नहीं है? 2) गुजरात के एक अलोपथी डॉक्टर ने स्वयं कहा की कोरोना के रोगियों के ट्रीटमेंट करते हुए वह कोरोना पॉज़िटिव हो गया। उसने पंचगव्य की औषध ली और पूरी तरह से ठीक हो गया। 3) महाराष्ट्र के मुंबई में भी कोरोना के पॉज़िटिव केस पर कार्य हुआ और पंचगव्य की औषधियों से ठीक हुए। ऐसे ही कई उदाहरण पंचगव्य से कर्नाटक और तमिलनाडू के भी हैं। ऐसे प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता ? यदि वैश्विक स्तर पर मान्यता के लिए प्रमाण की जरूरत ही है तो आयुष मंत्रालय और उसके लब में बैठे हुए लाखों रुपये प्रतिमाह वेतन पाने वालों का यह काम है की वे इसके लिए शास्त्रीय प्रमाण खड़ा करें।

सच बहुत ही कड़वा है। आयुष मंत्रालय को अलोपैथी तंत्र ने हिजड़ा बना कर रक्खा है। कोरोना महामारी ने प्रमाणित कर दिया है की आयुष मंत्रालय के पास किसी भी महामारी की औषध पैदा करने की शक्ति नहीं है। आयुष हिजड़ा बन कर रह गया है। यहीं पर जो लोग पारंपरिक आयुर्वेद और सिद्धा चिकित्सा के पंडित है उनके पास मेडिकल की बिकाऊ डिग्री नहीं होने के कारण उनके ज्ञान पर कालिख पोत दी जाती है। आयुष को पिछली बार के बजट में 2000 करोड़ दिया गया। क्या यही दिन देखने के लिए ? भारत के युवा सरकार से गणित मांगें ? 2000 करोड़ केवल डॉक्टरसाहियों के वेतन में बाँट दिया? जिनके पास स्वयं आयुर्वेद को ले कर आत्म विश्वास नहीं है। खाते हैं आयुर्वेद का और भजते हैं ड्रग्समाफिया का। सरकार चेते ! अपनी नीति बदले। अलोपैथी के सिकंजे से बाहर निकले।

विश्व स्वास्थ्य संघटन का लगाम केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्री हर्षवर्धन जी के पास है। उठो ! डॉक्टरसाहियों के मकड़जाल वाली नींद से, जागो और तब तक बढ़ों जब तक अलोपैथी की मिर्ग – मरीचिका को तोड़ कर विश्व में आयुर्वेद की पुनर्स्थापना न कर दो। प्रकृति ने इसीलिए आपको यह सम्मान दिया है।

  • वंदे मातरम

-साभार, पल्लव टाइम्स

1 comment on “भारत में ड्रग्स माफिया का सिकंजा ‘आयुष मंत्रालय’ को बनाया हिजड़ा

  1. What stupidity is going on… there is any medicine for the corona…,? According to the alopathi medicine, they don’t have any proper medicine yet. And what are there doing, those are effected peoples admitted to the hospitals off course that peoples treated as a gini pig or as white rat too…. but, there is solution with our “goumatha” through panchgavyam. Thre are thousands of panchavya sidha’s are able to beat and treat the disaster… but the government is becomes our sin of nation snd tradition. No more words and it concludes here, but we must hope that we have a time which is our own.
    Gurukulam Prakashan
    Thanking you and all

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