भगवान श्री जगन्नाथ और उनकी पृथ्वी को प्रत्येक युग में प्रलय का सामना करना पड़ा है। उन प्रलयों को निगल जाने की क्षमता किसी के पास है तो वह स्वयं श्री जगन्नाथ पूरी की धरती को। जब भी धरती पर जल प्रलय हुआ – इस धरती ने प्रलय के जल को सोख लिया और धरती पर फिर से संस्कृति (सृष्टि) का नया फूल खिला। यह ऊर्जा स्वयं सूर्य के द्वारा वहाँ की धरती को प्राप्त है।
जीव जगत जब मंगल से पृथ्वी पर स्थानांतरित हुआ तब जीव जगत ने ‘नील पर्वत पूरी’ की धरती को ही अपना पहला घर बनाया। स्थानांतरित करने वाले ‘भगवान नील’ भी हजारों वर्षों तक यहीं रहे और जीव जगत में मनुष्य की उत्पत्ति को देखते रहे। जब मनुष्य ने अपनी परिपक्वता को पा लिया – तब चतुर्भूजेश्वर भगवान नील अपने भौतिक शरीर से अंतर्ध्यान हो गए। यह धरती का सबसे रमणीक स्थल ‘नील पर्वत’ के नाम से आज भी जाना जाता है।
यहीं पर रहते हुए चतुर्भूजेश्वर भगवान नील मनुष्य जाति के लिए सबसे श्रेष्ठ अनाज “धान”, श्रेष्ठ फल “बड़फल” आदि को जीव जगत के लिए भेंट किया। पूरी के भूगोल का अंश बदलता गया, मौसम के अंश बदलते गए, भगवान का भौतिक स्वरूप भी बदलता गया। जो नहीं बदला वह है वहाँ की प्रकृति का सत्य रूप। लेकिन हम लोगों के द्वारा चयनित सरकारें और खड़ी की गयी न्यायिक व्यवस्था अपनी बुद्धि की विकलांगता पर सदियों से चली आ रही भगवान श्री जगन्नाथ की परंपरा का वैश्विक और प्रकृतिक रथयात्रा को रोकने का निर्णय ‘तुक्ष्य कोरोना परजीवी’ को बहाना बना कर लिया था। प्रकृति ने समय पर उन्हें बुद्धि दे दी और रथयात्रा आरंभ हुआ। एक बड़ी विपदा से सृष्टि बच गई।
अधिवक्ता हरीश साल्वे, जो जगन्नाथ रथयात्रा केस में सरकार की ओर से पेश हुए और रथयात्रा को अनुमति दिलाने के लिए कई विषय रखे। आज हरीश साल्वे जी ने उन वामपंथियों, विधर्मियों और नास्तिकों के मूंह में तमाचा मारा है जो इस सोंच में पड़े थे की श्री जगन्नाथ यात्रा पर रोक लगी तो सदियों की भारतीय परंपरा जो वैश्विक है टूट कर तार – तार हो जाएगी।
जो ‘भूतो ना भविष्यति’ है, उस पर भारत देश में ऐसे निर्णय कैसे हो जाते हैं ? इसीलिए मैं बार – बार दुहराता हूँ की सरकारें कौन चला रहा है ? निर्णय कौन ले रहा है? दिखता क्यों नहीं? असमिया गीतकार श्री भूपेन्द्र भाई हजारिका का यह गीत, जिसमें वे माँ गंगा से पूछते हैं – “विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार, करे हाहाकार, निःशब्द सदा, ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों? नई दिगता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई, निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों? इतिहास की पूकार, करे हुंकार, वो गंगा की धार, निर्बल जन को सबल संग्रामी, समग्रोगामी बनाती नहीं हो क्यों? अनपढ़ जन, अक्षर हीन, अंगीञ्जन, भाग्यविहीन, नेत्रविहीन देख मौन हो क्यों ? व्यक्ति रहित, व्यक्ति किंचित, सकल समाज व्यक्ति रहित, निष्प्राण समाज को तोड़ती ना क्यों? ………… गंगे नव जनजी नव भारत में समरजयी भीष्म रूपी जनती नहीं हो क्यों ? नमन है हजारिका जी की दिग्दृष्टि को।
सबरीमला की एक वैदिक परंपरा, जिसके उत्कृष्ट विज्ञान को तुमने नष्ट होने दिया, नास्तिक वामपंथियों के हाथों मदाड़ी का खेल बनते रहे। ‘जल्लीकट्टू’ को बंद कराने का अथक प्रयास कराने वाली मेनका गांधी और ‘पेटा’ के बहकावे में फस गए थे। बाबा अमरनाथ की यात्रा को सदियों तक मुट्ठी में बंद रक्खा। भ्रष्ट निर्णयों की गिनती कश्मीर से कन्याकुमारी तक भरी पड़ी है। कोहिमा से कच्क्ष तक चित्तकर है।
माफियाओं, विधर्मियों, काले अंगरेजों और भटके हुए युवाओं ; भारत अब फिर से उठ रहा है। गायों की चित्तकार अब थमने वाली है। युवाओं में प्रश्न पूछने का साहस भरा है। भारत की बेटियों में मर्दानगी आ गई है। सोसल मीडिया प्रमाण है। समय रहते, सुधर जाओं, नहीं तो प्रकृति सुधार देगी। अभी तक तो ‘तुक्ष्य कोरोना’ को ही देखा है। विश्व के पहले योगी भगवान शिव की झोली में अभी भी बहुत कुछ संजीवनी और प्रलयकारी जीवंत है।
यह श्री जगन्नाथ की ही महिमा है की कोरोना ने “पूरी” का कुछ बिगाड़ नहीं पाया। तेरी राजधानियाँ, तो मरघटों की सूंची में आ गए। दिल्ली ; लूटेरों के लिए लंदन, मुंबई ; असभ्यजनियों का नरक, झांक कर देख ले अपने गिरेबान में। जो बीत गयी सो बात गयी, बचा भारत हमारा है। युवाओं ने सोंच बदली है ; हिंदुस्तान हमारा है।
- वंदे मातरम।